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चौथा उद्देशक
ये छेदन आदि दो-दो प्रकार के होते हैं-शुषिर और अशुषिर। प्रत्येक दो-दो प्रकार के हैं-अनन्तर और परम्पर। ये पुनः दो-दो प्रकार के हैं सार्थक और निरर्थक। अनर्थक या निरर्थक छेदन आदि करने वाले को मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४९०१.नह-दंतादि अणंतर, पिप्पल्लमादी परंपरे आणा। ___छप्पइगादि असंजमे, छेदे परितावणातीया॥
नखों से, पैरों आदि से छेदन आदि करना अनन्तर छेदन कहलाता है। पिप्पलक आदि से छेदन परंपर छेदन है। अनन्तर तथा परंपर छेदन करने वाला आज्ञाभंग का भागी होता है। छेदन आदि करते हुए जूं आदि का विनाश हो जाता है। यह असंयम है। छेदन करते समय हाथ, पैर का छेदन हो जाता है। यह आत्मविराधना है। इसमें परिताप आदि महान् कष्ट होता है, उससे निष्पन्न पारांचिक प्रायश्चित्त भी आ सकता है। ४९०२.अझुसिर झुसिरे लहुओ,
लहुगा गुरुगो य होति गुरुगा य। संघट्टण परितावण,
लहु-गुरुगऽतिवायणे मूलं॥ अशुषिर अनन्तर का छेदन करना है मासलघु, शुषिर का चतुर्लघु, अशुषिर परंपर का गुरुमास, शुषिर परंपर का चतुर्गुरुक ये सारे प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। छेदन आदि करता हुआ यदि द्वीन्द्रिय प्राणी का संघट्टन करता है चतुर्गुरु, परितापना देता है चतुर्गुरु, उपद्रवण करता है तो षड्लघु त्रीन्द्रिय आदि का संघट्टण करता है चतुर्गुरु, परितापन देता है षड्लघु, उपद्रवण करता है षड्गुरु, चतुरिन्द्रिय का संघट्टन करने पर षड्लघु, परितापना देने पर षड्गुरु, उपद्रवण करने पर छेद, पंचेन्द्रिय का संघट्टन करने पर षड्गुरु, उपद्रवण करने पर छेद और अतिपात करने पर मूल। सविस्तार यह प्रायश्चित्त (पीठिका गाथा ४६१) के अनुसार यहां भी जानना । चाहिए। ४९०३.अझुसिरऽणंतर लहुओ,
गुरुगो अ परंपरे अझुसिरम्मि। झुसिराणंतरे लहुगा,
गुरुगा तु परंपरे अहवा॥ अशुषिर अनन्तर में लघुमास, और परंपर में गुरुमास। शुषिर अनन्तर में चतुर्लघु और परंपर में चतुर्गुरुक। अथवा का अर्थ है कि प्रायश्चित्त का प्रकारान्तर भी है। ४९०४.एमेव सेसएसु वि, कर-पादादी अणंतरं होइ। ___जं तु परंपरकरणं, तस्स विहाणं इमं होति॥ इसी प्रकार छेदनवत् शेष भेदन आदि पदों में भी
प्रायश्चित्त कहना चाहिए। हाथ, पैर आदि से होने वाला भेदन आदि अनन्तर होता है। जो भेदन आदि के परंपराकरण होता है उसका विधान इस प्रकार है। ४९०५.कुवणयमादी भेदो, घसण मणिमादियाण कट्ठादी।
पट्टवरादी पीसण, गोप्फण-धणुमादि अभिघातो॥ लाठी आदि से घड़े का भेदन करना, यह परंपराभेदन कहलाता है। मणि आदि का घर्षण करना, अथवा चन्दन के काष्ठ आदि फलक का घिसना, गंधपट्ट को पीसना, चर्ममयी गोफण, धनुष्य आदि से पत्थर आदि फेंक कर अभिघात करना। ४९०६.विहुवण-णंत-कुसादी, सिणेह उदगादिआवरिसणं तु।
काओ तु बिंब सत्थे, खारो तु कलिंचमादीहिं॥ वीजनक, वस्त्र तथा कुश आदि से वीजना-यह भी प्राणियों का अभिघात करता है। स्नेह अर्थात् उदक, घृत, तैल आदि से आवर्षण करना। काय अर्थात् द्विपदादि के बिम्ब को शस्त्र रूप में पत्र छेदन आदि के रूप में निर्वर्तन करना, क्षार को शुषिर या अशुषिर में किलिंचक से प्रक्षिप्त करनाइनसे दोष उत्पन्न होते हैं। ४९०७.एक्केक्कातो पदातो, आणादीया य संजमे दोसा।
एवं तु अणट्ठाए, कप्पइ अट्ठाए जयणाए। भेदन आदि प्रत्येक पद में आज्ञाभंग आदि दोष होता है तथा आत्मविराधना और संयमविराधना भी प्राप्त होती है। ये दोष अनर्थक छेदन-भेदन से होते हैं, प्रयोजनवश यदि यतनापूर्वक छेदन-भेदन किया जाता है तो वह कल्पता है। ४९०८.असती अधाकडाणं, दसिगादिगछेदणं व जयणाए।
गुलमादि लाउणाले, कप्परभेदादि एमेव ।। यदि यथाकृत वस्त्र की प्राप्ति नहीं होती है तो किनारों आदि को यतनापूर्वक काटा जा सकता है। गुड़ के घड़े का भेदन, तुंबे की नाल का, घड़े के कपाल का यतनापूर्वक भेदन किया जा सकता है। ४९०९.अक्खाण चंदणे वा, वि घंसणं पीसणं तु अगतादी।
वग्घातीणऽभिघातो, अगतादि पताव सुणगादी। विषम अक्षों को घिसना, चंदन को घिसना, औषधियों को पीसना, व्याघ्र आदि का अभिघात करना, अगद आदि जब धूप में सुकाया जाता है तब कौए आदि वहां आते हैं, तब उनको पत्थर फेंक कर उड़ाना या डराना-ये सब कार्य करने होते हैं। ४९१०.बितिय दवुज्झण जतणा, दाहे वा भूमि-देहसिंचणता।
पडिणीगाऽसिवसमणी, पडिमा खारो तु सेल्लादी॥ इसमें अपवाद पद यह है। शेष बचे हुए घी, तैल आदि
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