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=बृहत्कल्पभाष्यम्
गांव में पर्यटन करेंगे। अथवा प्रतिवृषभग्राम और मूलग्राम के मध्य में जो ग्राम है, उसमें आधे में आप पर्यटन करें आधे में हम पर्यटन करेंगे यह सीमा बांधे।। ४८५३.इंदक्खीलमणोग्गहो, जत्थ य राया जहिं च पंच इमे।
सेट्टि अमच्च पुरोहिय, सेणावति सत्थवाहे य॥ जहां इन्द्रकीलक-इन्द्रस्थूणा आरोपित होता है वहां अवग्रह नहीं होता। जहां राजा रहता है, वहां ये पांच होते हैंश्रेष्ठी, अमात्य, पुरोहित, सेनापति और सार्थवाह। वहां भी अवग्रह नहीं होता। ४८५४.अद्धाणसीसए वा, समोसरणे वा वि ण्हाण अणुयाणे। ___एतेसु णत्थि उग्गहो, वसहीए मग्गण अखेत्ते॥
अध्वशीर्षक, समवसरण, स्नान-अर्हत् प्रतिमा को स्नान कराने का स्थान, रथयात्रा-इन सबमें अवग्रह नहीं होता। अतः ये अवग्रह के अक्षेत्र होते हैं। इनमें रहते हुए अवग्रह की मार्गणा करनी चाहिए। ४८५५.बहुजणसमागमो तेसु होति बहुगच्छसन्निवातो य।
मा पुव्वं तु तदट्ठा, पेल्लेज अकोविया खेत्तं॥ इन्द्रकीलक आदि स्थानों में बहुत सारे लोगों का समागम होता है। वहां उनके गच्छों का सन्निपात होता है। वहां कोई पहले आकर क्षेत्र को अपना न बना ले, इसलिए वहां अवग्रह नहीं होता। ४८५६.सहा दलंता उवहिं निसिद्धा,
सिटे रहस्सम्मि करेज्ज मन्न। पभावयते य ण मच्छरेणं,
तित्थं सलद्धी दुहतो वि हाणी॥ वहां पहले जाने वाले मुनि को श्राद्ध वस्त्र आदि देते हैं, उनको निषेध कर देते हैं कि यह लेना हमें नहीं कल्पता। श्राद्धों को मन में मन्यु-अप्रीति उत्पन्न हो जाती है। वे मुनि लब्धि आदि से संपन्न हैं। वे सोचते हैं-हमें यहां कुछ भी लाभ नहीं होगा, इस मात्सर्यभाव से वे उस क्षेत्र को धर्मकथा आदि से प्रभावित नहीं करते। इस प्रकार दोनों ओर से हानि-न शैक्ष कोई प्राप्त होता है और न आहार, वस्त्र आदि प्राप्त होते हैं। ४८५७.एगालयट्ठियाणं, तु मग्गणा दूरे मग्गणा नत्थि।
आसण्णे तु ठियाणं, तत्थ इमा मग्गणा होइ॥ एक वसति में रहने वाले मुनियों के अवग्रह की मार्गणा होती है। जो दूर स्थित है उनके अवग्रह की मार्गणा नहीं होती। जो निकट स्थित हैं उनके अवग्रह की मार्गणा होती है।
४८५८.सज्झाय काल काइय,
निल्लेवण अच्छणे असति अंतो। वसहिगमो पेल्लंते,
वसही पुण जा समापुण्णा॥ उपाश्रय में यदि स्वाध्यायभूमी, कालप्रतिलेखनाभूमी, कायिकीभूमी, पात्रनिर्लेपनभूमी, बैठने की भूमी-ये सारी एक साथ अनुज्ञापित हों तो सबके लिए साधारण होती हैं। जो वहां पूर्वस्थित हैं, उनके अवग्रह होता है, बाद में आने वालों का नहीं। यदि स्थान रिक्त हो और आने वालों की अनुज्ञापना नहीं करते हैं तो वसति संबंधी जो विकल्प है, वही प्रायश्चित्त इसमें लागू होता है। वसति यदि श्रमणों से पूर्ण हो और दूसरों को वहां प्रेरित करे तो वहां दोष होते हैं। ४८५९.वइगा सत्थो सेणा, संवट्टो चउविहं चलं खेत्तं।
एतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ जिका, सार्थ, सेना और संवर्त-ये चारों चल क्षेत्र हैं। मैं अब क्रमशः इनके नानात्व की चर्चा करूंगा। ४८६०.जेणोग्गहिता वइगा, पमाण तूह दुह भंडि परिभोगे।
समवइग पुव्व उग्गह, साहारण जं च णीसाए।। जिस साधु ने जिस वजिका का अवग्रहण कर लिया है, वह व्रजिका का स्वामी होता है। कुछ आचार्य इसका प्रमाण मानते हैं जितने भूभाग में गाएं चरने वाली हैं, वहां तक उसका अवग्रह होता है, जलपान के लिए गाएं जितने भूभाग में, कोई कहता है जहां गाएं दुही जाती हैं आचार्य कहते हैं ये सारे अनादेश हैं। जितने स्थान में भण्डिका-शकट रहते हैं-यह अवग्रह का प्रमाण है। जहां साधुओं के दो वर्ग एक ही वजिका में हो तो वहा वजिका साधारण होती है-दोनों की होती है। एक वर्ग पूर्वस्थित हो तो उसका अवग्रह होता है। यदि दो वर्ग पारम्परिक निश्रा से ठहरे हों तो अवग्रह साधारण होता है। ४८६१.ण गोयरो णेव य गोणिपाणं,
णावे? दुज्झंति व जत्थ गावो। अब्भत्थ गोणादिसु जत्थ खुण्णं,
स उग्गहो सेसमणुग्गहो तु॥ न गोचर, न गोपानस्थान, न गायों को दुहने का स्थान, अवग्रह होता है किन्तु जिका के आसपास जहां गाएं घूमती हैं जितनी भूमी शकटों से आक्रान्त हो, उतना ही अवग्रह होता है, शेष अवग्रह नहीं होता। ४८६२.जइ समगं दो वइगा, ठिता तु साधारणं ततो खेत्तं।
अण्णवइगाए सहिता, तत्थेवऽण्णे ठिता अपभू ।।
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