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तीसरा उद्देशक
नहीं होता। वहां क्या अवग्रह हो सकता है जिससे उसको क्षेत्र कहा जाए? ४८४४.खेत्तं चलमचलं वा, इंदमणिंदं सकोसमक्कोसं।
वाघातम्मि अकोसं, अडवि जले सावए तेणे॥ जहां क्षेत्र अवग्रह की विचारणा हो, वह क्षेत्र दो प्रकार का होता है-चल और अचल। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-ऐन्द्र, अनिन्द्र। इनमें से जो अचल और अनिन्द्र है उसके दो प्रकार हैं-सक्रोश और अक्रोश। जिस दिशा में व्याघात होता है, उसमें अक्रोश होता है। व्याघात क्या हो सकते हैं-अटवी, समुद्र या नदी, श्वापद और स्तेन। ४८४५.सेसे सकोस मंडल, मूलनिबंधं अणुम्मुयंताणं। ___ पुवुट्ठिताण उग्गहो, सममंतरपल्लिगा दोण्ह॥
शेष अर्थात् जहां व्याघात न हो वहां मंडल के चारों ओर सर्वतः सक्रोश योजन अवग्रह होता है। यह मूलनिबंध अर्थात् मंडल को न छोड़ते हुए माना गया है। जैसे-मूलग्राम से प्रत्येक दिशा में आधा-आधा योजन क्रोश से समधिक अवग्रह होता है। वह चारों दिशाओं में सक्रोश योजन होता है। जो सक्रोश या अक्रोश में पूर्वस्थित हैं उनके यह अवग्रह होता है। यदि संबद्ध क्षेत्रों में एक साथ अनुज्ञापित हुआ हो तो यदि दो अन्तरपल्ली हों तो एक की एक अन्तरपल्ली और शेष सबकी दूसरी अन्तरपल्ली होती है। यदि एक ही अन्तरपल्ली हो तो वह दोनों के लिए साधारण होती हैं। ४८४६.खेत्तस्संतो दूरे, आसण्णं वा ठिताण समगं तु।
अद्धं अद्धद्धं वा, दुगाइसाहारणं होइ॥ जहां अनेक अन्तरपल्लिकाएं हों वहां की विधि यह है- कोई क्षेत्र के अभ्यन्तर होती है, कोई दूर, कोई निकट है। (जहां से आनीत आहार क्षेत्रातिक्रान्त न हो), इनमें जो स्थित हैं उन सबमें ये अन्तरपल्लियां विभाजित कर बांट दी जाएं। आधी या पाव संख्या वाली अन्तरपल्लिकाएं तीन भाग कर या दो भाग कर-ये पल्लियां दो-तीन गच्छों के लिए साधारण होती हैं। ४८४७.तण-डगल-छार-मल्लग-संथारग-भत्त-पाणमादीणं।
सति लंभे अस्सामी, खेत्तिय ते मोत्तऽणुण्णवणा॥ तृण, डगल, क्षार, मल्लक, संस्तारक, भक्त-पान आदि का प्रचुर लाभ होने पर क्षेत्रिक उसके अस्वामी होते हैं। क्षेत्रिकों ने जिन तृण, डगल आदि की अनुज्ञापना की हो, उनको छोड़कर अर्थात् वे अक्षेत्रिकों की नहीं
४८४८.ओहो उवग्गहो वि य, सच्चित्तं वा वि खेत्तियस्सेते।
मोत्तूण पाडिहारिं, असंथरंते वऽणुण्णवणा।। ओघउपधि और औपग्रहिक उपधि तथा सचित्त अर्थात् शैक्ष क्षेत्रीय के आभाव्य होते हैं। प्रातिहारिक उपधि को छोड़कर वे दोनों प्रकार की उपधि को गृहस्थों से याचित करते हैं तो भी प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते। यदि शीतकाल आदि में अपने पास वाले वस्त्रों से जीवन यापन न कर सकने पर वस्त्र आदि की अनुज्ञापना करे। ४८४९.जइ पुण संथरमाणा, ण दिति इतरे व तेसि गिण्हंति।
तिविधं आदेसो वा, तेण विणा जा य परिहाणी॥ यदि क्षेत्रिक मुनियों के पास निर्वाहयोग्य वस्त्र हों और वे यदि अक्षेत्रीय मुनियों को वस्त्र नहीं देते अथवा वे अक्षेत्रीय मुनि बलात् लेते हैं तो तीन प्रकार का प्रायश्चित्त (जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट) सूत्र के आदेश से प्राप्त होता है। तथा वस्त्र के बिना जो परिहानि होती है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ४८५०.जे खेत्तिया मो त्ति ण देति ठागं,
लंभे वि जाऽऽगंतुवयंते हाणी। पेल्लंति वाऽऽगंतु असंथरम्मि,
चिरं व दोण्हं पि विराहणा उ॥ यदि क्षेत्रीय मुनि भक्तपान का प्रचुरलाभ होने पर भी दूसरों को स्थान नहीं देते तो आगंतुक मुनियों के जो परिहानि होती है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। यदि आगंतुक क्षेत्रीय मुनियों को प्रेरित कर वहां चिरकाल तक या अल्प काल तक रहते हैं तो क्षेत्रीय मुनियों के असंस्तरण से होने वाली विराधना का प्रायश्चित्त आता है। ४८५१.अत्थि हु वसभग्गामा, कुदेसणगरोवमा सुहविहारा।
बहुगच्छुवग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं ।। वहां वृषभग्राम हों जो कुदेश के नगर की उपमा वाले हों, सुखविहार वाले हों, अनेक गच्छों के उपग्रहकारक हों तो वहां सीमा बनाकर रहा जा सकता है। ४८५२. एक्कवीस जहण्णेणं, पुवट्ठिते उग्गहो इतरे भत्तं।
पल्ली पडिवसभे वा, सीमाए अंतरा गामो।। वृषभग्राम उन्हें कहा जाता है जहां वर्षा ऋतु में इकतीस सन्त और ऋतुबद्धकाल में पन्द्रह सन्त रह सकते हैं। वहां जो पूर्वस्थित मुनि हैं, उनका अवग्रह होता है। जो केवल भक्तपान के लिए रहते हैं उन्हें सीमा करके रहना चाहिए। सीमा जैसे-तुम अन्तरपल्ली में पर्यटन करो, हम प्रतिवृषभग्राम-मूलगांव से आधे योजन की दूरी पर स्थित बड़े
होती।
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