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तीसरा उद्देशक
४८२४. पच्छण्ण पुव्वभणियं, विदिण्ण थंडिल्ल सुक्ख हरिए । अगड वरंडग दीहिय,
जलणे पासे पदेसेसु ॥
मुनि के शव को प्रच्छन्न- जहां सागारिक न देखें वहां परिष्ठापित करे या जैसे पहले कथित है उस प्रकार उसकी विवेचना करे। अथवा राजा द्वारा वितीर्ण - अनुज्ञात स्थंडिल का उपयोग करे । स्थंडिल में शुष्क तृण हों उसका उपयोग करे, उसके अभाव में हरियाली वाले स्थंडिल का या फिर राजा द्वारा अनुज्ञात अगड-गर्ता में वरंडग-प्राकार के वरंडक में, या दीर्घिका में, अग्नि में या इनके पार्श्व वाली भूमी में परिष्ठापित करे।
४८२५. अन्नाए परलिंगं, उवओगद्धं तुलेत्तु मा मिच्छं । णाते उड्डाहो या अयसो पत्थारदोसो वा ॥ राजाज्ञा से शव को परलिंग करने के लिए अन्तर्मुहूर्त तक प्रतीक्षा कर फिर करे । उससे पूर्व करने पर मिथ्यात्व में वह न चला जाए जो ज्ञात नहीं है, उसे परलिंग न करे क्योंकि इससे उड्डाह हो सकता है। उससे प्रवचन की अकीर्ति और प्रस्तारदोष अर्थात् कुल-गण-संघ का विनाश हो सकता है। ४८२६. न वि को विकंचि पुच्छति,
निर्णितं व अंतो बाहिं या ।
आसंकिते पडिसेहो,
णिक्कारण कारणे जतणा ॥ रोध के समय यदि कोई कुछ नहीं पूछता, स्वेच्छा से आने-जाने या प्रवेश निर्गमन करने में तो अन्तर, या बाहर गोचरी करते हैं। आशंकित होने पर निष्कारण प्रतिषेध में न जाए। कारण हो तो यतना रखे ।
४८२७. पउरण्ण-पाणगमणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । सो त इयरे य चत्ता, कुल गण संघे य पत्थारो ॥ यदि अभ्यन्तर में प्रचुर अन्नपान प्राप्त होता हो तो बाहर जाए तो चतुर्मास अनुद्घात तथा आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं वैसा करने वाला मुनि स्वयं को तथा अन्यान्य साधुओं को परित्यक्त कर देता है। इससे राजा कुल-गण-संघ का प्रस्तार - विनाश भी कर सकता है। ४८२८. अंतो अलब्भमाणे, एसणमाईसु होति जइतब्वं ।
जावंतिए विसोधी, अमच्चमादी अलाभे वा ॥ यदि अभ्यन्तर में पर्याप्त भक्तपान प्राप्त न हो तो पंचक प्रायश्चित्त की विधि से एषणा आदि में प्रयत्न करे। यावन्तिका आदि विशुद्धकोटि के दोषों में प्रयत्न करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। यदि इस प्रयत्न से भी
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पर्याप्त भक्तपान प्राप्त नहीं होता तो अमात्य, दानश्रद्धा वाले श्रावकों को ज्ञात कराता है। वे यदि अविशोधिकोटि दोष दृष्ट भक्तपान देते हैं तो वह ग्रहण करे। ४८२९. आपुच्छित आरक्खित,
सेट्टी सेणावती अमच्च रायाणं ।
णिग्गमण दिरुवे,
भासा य तहिं असावज्जा ॥ रोध के समय अभ्यन्तर में पर्याप्त भक्तपान न मिलने पर आरक्षिक को पूछे कि हम मिक्षा के लिए बाहर जाना चाहते हैं। उसके मनाही करने पर श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य या राजा को निवेदन करे। राजा तब द्वारपाल को बता देता है कि इन साधुओं को देख लो। ये भिक्षा के लिए बाहर जायेंगे, लौट कर आएंगे, इन्हें रोकना नहीं है। बाहर जाकर मुनि असावद्य भाषा बोले ।
४८३०. मा वच्चह दाहामि, संकाए वा ण देति णिग्गंतुं ।
दाणम्मि होइ गहणं, अणुसङ्कादीणि पडिसेधे ॥ यदि आरक्षिक आदि कहे कि बाहर न जाएं हम आपको भोजन देंगे। वे आशंका के कारण बाहर जाने की मनाही करते हैं। वे जो कुछ देते हैं उसे ग्रहण कर लेना चाहिए । यदि आरक्षिक आदि बाहर न जाने देते हैं और न भक्तपान की व्यवस्था करते हैं तो उन्हें अनुशिष्टि देकर समझाना चाहिए।
४८३१. बहिया वि गमेतूणं, आरक्खितमादिणो तहिं णिति । हित णट्ट चारिगादी, एवं दोसा दोसा जढा होंति ॥ मुनि बाहर जाकर भी आरक्षिक, श्रेष्ठी आदि को बताकर भिक्षा करते हैं। ऐसा करने पर हृत, नष्ट और चारिका आदि दोष परित्यक्त हो जाते हैं।
४८३२. पियधम्मे दधम्मे, संबंधऽविकारिणो करणदक्खे।
पडिवत्तीय कुसले, तब्भूमे पेसए बहिता ॥ जो मुनि बाहर जाते हैं वे इन गुणों से युक्त हों- प्रियधर्मा, दृढधर्मा, जिनका अन्तर् - बहि स्वजन संबंध होता है, अविकारी, करणदक्ष- भिक्षाग्रहण आदि में विवेक संपन्न, परिवत्ति - प्रत्युत्तर देने में कुशल, उस भूमी से परिचित हो । ४८३३. केवतिय आस हत्थी, जोधा धण्णं व कित्तियं णगरे ।
परितंतमपरितंता, नागर सेणा व ण वि जाणे ॥ बाहर जाने वाले मुनि से बाह्य स्कंधावार वाले पूछते हैं-नगर के अभ्यन्तर में कितने अश्व, हाथी या योद्धा हैं? धान्य नगर में कितना है? रोध के कारण नागरिक उद्विग्न हैं या अनुद्विग्न ? यह पूछे जाने पर मुनि कहे मैं नहीं
जानता।
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