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तीसरा उद्देशक= चाहिए। यदि अन्त प्रच्छन्न न हो तो संवत के बाहर जाकर भोजन करना चाहिए। यदि बाहर भय हो तो संवर्त में चिलिमिलिका लगा कर भोजन करना चाहिए। यदि चिलिमिलिका न हो या भय के कारण उसको प्रगट न किया जाए तो आधे मुनि पात्र में भोजन करें और शेष 'कमठों' में। ४८०५.काले अपहुच्चंते, भए व सत्थे व गंतुकामम्मि।
कप्पुवरि भायणाई, काउं इक्को उ परिवेसे॥ यदि बारी-बारी से खाने पर काल पूरा नहीं होता, भय के कारण शीघ्र भोजन करना हो या सार्थ वहां से जाने का इच्छुक हो कल्प के ऊपर भाजनों को स्थापित कर सभी कमठकों में भोजन करते हैं और एक मुनि सबको परोसता है। ४८०६.पत्तेग वड्डगासति, सज्झिलगादेक्कओ गुरू वीसुं।
ओमेण कप्पकरणं, अण्णो गुरुणेक्कतो वा वि॥ प्रत्येक मुनि के लिए 'वड्डक'-कमठक न हों तो सभी सहोदर होने के कारण एक वड्डक में ही भोजन करे और गुरु पृथक् भोजन करते हैं। सभी भोजन कर चुकने पर जो लघु मुनि होता है, वह कमठकों को धोता-पौंछता है, गुरु का कमठक उनके साथ नहीं मिलाता। दूसरा उसका धावन करता है। ४८०७.भाणस्स कप्पकरणं, दड्डिल्लग मुत्ति कडुयरुक्खे य।
तेसऽसति कमढ कप्पर, काउमजीवे पदेसे य॥ भाजनों का कल्पकरण अर्थात् धोना आदि दग्धभूमी या गोमूत्र से भावित भूभाग या कटुकवृक्षों के नीचे करना चाहिए। उनके अभाव में कमठकों में या घट आदि के कर्पर में भाजनों का कल्प कर, पानी को अजीवप्रदेश में परिष्ठापित कर दे। ४८०८.गोणादीवाधाते, अलब्भमाणे व बाहि वसमाणा।
वातदिसि सावयभए, अवाउडा तेण जग्गणता॥ संवर्त के भीतर निराबाध प्रदेश में रहते हैं। यदि वहां गायों-बैलों का व्याघात हो तथा प्रासुक प्रदेश न हो, बाहर रहते हुए वहां श्वापद का भय हो तो जिस दिशा में हवा चल रही हो, उस दिशा को छोड़कर रहे। यदि परचक्र प्रवेश कर गया हो तो अपावृत होकर कायोत्सर्ग में स्थित हो जाएं और बारी-बारी से जागृत रहकर सारी रात बिताए। ४८०९.जिणलिंगमप्पडिहयं, अवाउडे वा वि दिस्स वजंति।
थंभणि-मोहणिकरणं, कडजोगे वा भवे करणं॥ अचेलता लक्षण वाला जिनलिंग अप्रतिहत है। इस प्रकार रहने वाले के प्रति कोई उपद्रव नहीं करता। स्तेन भी अपावृतों को देखकर छोड़ देते हैं। वे मुनि स्तंभिनी, मोहनी
विद्या के द्वारा उन चोरों का स्तंभन-मोहन करते हैं। अथवा कोई कृतयोगी मुनि हो तो वह उनको शिक्षा देता है, उनका मुकाबला करता है। ४८१०.संवदृणिग्गयाणं, णियट्टणा अट्ठ रोह जयणाए।
वसही-भत्तट्ठणया, थंडिल्लविगिंचणा भिक्खे॥ संवर्तनिर्गत अर्थात् गांव से निर्गत होकर संवर्त में स्थित वे मुनि भी पुनः प्रयोजनवश नगर के प्रति निवर्तना करते हैं। अथवा ग्लानत्व आदि के कारण पहले ही नगर से निवर्तन नहीं हुआ और वहां रहते आठ मास तक नगर का रोध चला तो वहां वास यतनापूर्वक करना चाहिए। वह यतना वसति, भक्तार्थन, स्थंडिल, विगिंचणा-परिष्ठापना, भैक्ष विषयक होती है। ४८११.हाणी जावेकट्ठा, दो दारा कडग चिलिमिणी वसभा।
तं चेव एगदारे, मत्तग सुवणं च जयणाए॥ रोध के समय आठ वसतियों की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। उनमें प्रत्येक ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास रहे। आठ प्राप्त न हो तो सात और इस प्रकार हानि होते-होते संयत और संयतियों की एक ही वसति हो। उस एक वसति में रहने पर उसके दो द्वार होने चाहिए। अपान्तराल में कटक या चिलिमिलिका देनी चाहिए। जहां दो द्वार न हों तो एक द्वारवाली वसति में भी यही विधि है। कायिकीभूमी के अभाव में मात्रक का प्रयोग करे। यतना से स्वपन करे। ४८१२.रोहेउ अट्ठ मासे, वासासु सभूमि तो णिवा जंति।
परबलरुद्धे वि पुरे, हाविंति ण मासकप्पं तु॥ रोध के आठ मास बीत जाने पर वर्षावास में नृप अपनी भूमी में चले जाते हैं। साधु रोध में रहते हुये भी परबलरुद्ध नगर में मासकल्प की हानि नहीं करते। वे वहां आठ वसतियां और आठ भिक्षाचर्या की प्रत्युपेक्षा करते हैं। ४८१३.भिक्खस्स व वसहीय व,
असती सत्तेव चउरो जावेक्का। लंभालंभे एक्केक्कगस्स
णेगा उ संजोगा॥ आठ वसतियां और भिक्षाचर्या की आठ स्थितियां न होने पर चार यावत् एक वसति और एक भिक्षाचर्या की प्रत्युपेक्षा करे। एक-एक के लाभ-अलाभ में संयोगतः अनेक विकल्प होते हैं। ४८१४.एगत्थ वसंताणं, पिहढुवाराऽसतीय सयकरणं।
मज्झेण कडग चिलिमिणि, तेसुभयो थेर खुड्डीतो॥ साधु-साध्वी एकत्र रहते हुए अपान्तराल में चिलिमिलिका या कटक लगाना चाहिए। पृथक्द्धार न होने पर स्वयं भींत
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