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सेणा - पदं
से गामस्स वा जाव रायहाणीए वा बहिया सेणं सन्निविद्वं पेहाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तद्दिवसं भिक्खायरियाए गंतूणं पडिएत्तए नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवाइणावित्तए । जे खलु निम्गंथे वा निग्गंथी वा तं रयणि तत्थेव उवाइणावेइ, उवाइणावेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं
अणुग्घाइयं ॥
(सूत्र ३३)
४७९५. उवरोहभया कीरइ, सप्परिखो पुरवरस्स पागारो । ते र सेणासुत्तं, अणुअत्तइ उग्गहो जं च ॥ शत्रुसेना के घिर जाने के भय से गांव के चारों ओर परिखायुक्त प्राकार का निर्माण किया जाता है। इसलिए 'र' सेनासूत्र का वाचक है। अवग्रह का पूर्वसूत्र से अनुवर्तन हो रहा है। अतः रोध होने पर राजा का अवग्रह अनुज्ञापित कर बहिर्गमन और प्रवेश किया जाता है।
४७९६. सेणादी गम्मिहिई, खित्तुप्पायं इमं वियाणित्ता ।
असिवे ओमोयरिए, भय-चक्काऽणिग्गमे गुरुगा ॥ मासकल्पवाले क्षेत्र में स्थित साधुओं ने जाना कि शत्रु सेना आयेगी, तथा क्षेत्रोत्पात (परचक्र के उत्पात के चिह्न दिन में चक्रवाल से धूम निकलता है, अकाल में वृक्षों पर फल-फूल आते हैं, भूमी अत्यधिक शब्द से कंपित होती है चारों ओर क्रन्दन, कूजन आदि सुनाई देता है) होते हैं, उनको जानकर वहां से चले जाना चाहिए। इसी प्रकार अशिव, अवमौदर्य, बोधिक चोरों का भय, परचक्र का भय जानकर भी यदि वहां से निर्गमन नहीं करते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है।
४७९७. आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा -ऽऽयाए । असिवादिम्मि परुविते, अधिकारो होति सेणाए ॥ तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्मविराधना होती है। अशिवादिक प्ररूपित होने पर सेना का अधिकार होता है। ( गाथा ३०६२ आदि)
४७९८. अतिसेस-देवत- णिमित्तमादि अवितह पवित्ति सोतूणं । णिग्गमण होइ पुव्वं, अणागते रुद्ध वोच्छिण्णे ॥
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बृहत्कल्पभाष्यम्
अवधिज्ञान के अतिशेष से स्वयंजान लिया, देवता ने कहा, नैमित्तिक ने बताया, अवितथ वार्ता को सुनकर ज्ञात हुआ - इन स्थितियों में पहले ही निर्गमन कर लेना चाहिए । यदि अनागत को नहीं जाना और नगरावरोध हो गया, मार्ग अवरुद्ध हो गए तो वहां से निर्गमन नहीं हो सकता। ४७९९. गेलन्न रोगि असिवे, रायद्दुट्ठे तहेव ओमम्मि ।
उवही - सरीरतेणग, णाते वि ण होति णिग्गमणं ॥ ग्लान, रोगी, अशिव, राजद्विष्ट, अवमौदर्य, उपधि और शरीर के स्तेनों का भय इनके ज्ञात हो जाने पर भी वहां से निर्गमन नहीं होता ।
४८००. एएहि य अण्णेहि य, ण णिग्गया कारणेहिं बहु हिं ।
अच्छंति होइ जयणा, संवट्टे णगररोधे य ॥ इन कारणों तथा अन्यान्य अनेक कारणों से वहां से निर्गमन न हुआ हो, वहीं रहने पर यतना करनी चाहिए। तथा संवर्त - परचक्र के भय से अनेक गांवों के लोग एकत्रित होकर रहते हैं, तथा नगररोध के समय क्या यतना होनी चाहिएइसका विवेक आवश्यक है।
४८०१. संवट्टम्मि तु जयणा, भिक्खे भत्तट्टणाए वसहीए ।
तम्मि भये संपत्ते, अवाउडा एक्कओ ठंति ॥ संवर्त में रहते हुए भक्तार्थ के लिए भिक्षा में तथा वसति में यतना करनी चाहिए। उसमें परचक्र का भय होने पर अप्रावृत होकर एकरूप में रहते हैं।
४८०२. वइयासु व पल्लीसु व, भिक्खं काउं वसंति संवट्टे ।
सव्वम्मि रज्जखोभे, तत्थेव य जाणि थंडिल्ले ॥ व्रजिका और पल्लियों में भिक्षा कर, स्थंडिल में भोजन कर रात्री में संवर्त में आते हैं। यदि सर्वत्र राज्य का क्षोभ हो तो संवर्त में जो कुल स्थंडिल में स्थित हैं, उनमें भिक्षा करते हैं।
४८०३. पूवलिय- सत्तु - ओदणगहणं पडलोवरिं पगासमुहे ।
सुक्खादीण अलंभे, अजविंता वा वि लक्खेंति ॥ वे भिक्षा में पूपलिका, सत्तू और शुष्क ओदन आदि शुष्क- द्रव्य जो पटल के ऊपर है उसे प्रकाशमुख वाले पात्र में लेते हैं। यदि शुष्क की प्राप्ति नं हो और साधुओं के लिए पर्याप्त न मिले तो आर्द्र लेते समय वे लगे हुए खरंटक को सम्यक् प्रकार से देखते हैं। ४८०४.पच्छन्नासति बहिया,
अह सभयं तेण चिलिमिणी अंतो । असतीय व सभयम्मि व,
धरंति अद्धेरे भुंजे ॥ संवर्त के अन्त में प्रच्छन्न प्रदेश में भक्तार्थन करना
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