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किसी महान् सार्थ को कोई लघुतर सार्थ प्रतीक्षा करता है तो लघुतर सार्थ के साधु अवग्रह के स्वामी नहीं होते। जो सार्थ भय के कारण महान् सार्थ से मिलने के लिए त्वरा करता है वह भी अस्वामी होता है। ४८७४.अडवीमज्झम्मि णदी, दुग्गं वा एत्थ दो वि वसिऊणं।
वोलेहामो पभाए, णिस्सा साधारणं कुणइ॥ दो सार्थ एकत्र मिले। उन्होंने परस्पर यह निश्रा की जो अटवी के मध्य नदी है वहां दोनों सार्थ रात्री में विश्राम कर प्रभात में आगे प्रस्थान करेंगे। दोनों के निश्रा के कारण सारा आभाव्य साधारण होता है, दोनों का होता है। ४८७५.सेणाए जत्थ राया, अणोग्गहो जत्थ वा पविट्ठो सो।।
सेसम्मि उग्गहो जो, गमो उ वइगाए सो इहइं॥
= बृहत्कल्पभाष्यम् __ जहां जिस सेना में राजा होता है, वहां अवग्रह नहीं होता तथा जिस नगर या गांव में राजा प्रवेश कर जाता है, वहां भी अवग्रह नहीं होता। शेष क्षेत्र में जो अवग्रह होता है, वह समान होता है। वजिका के विषय में जो विकल्प कहा गया है, वह यहां भी लागू होता है। ४८७६.नागरगो संवट्टो, अणोग्गहो जत्थ वा पविठ्ठो सो।
सेसम्मि उग्गहो जो, गमो उ सत्थम्मि सो इहई। नगर संबंधी संवर्त में अवग्रह नहीं होता तथा नागरक संवर्त्त जहां प्रविष्ट होता है, वहां भी अवग्रह नहीं होता। शेष अर्थात् ग्रामेयक संवर्त में अवग्रह होता है, परंतु सार्थ के विषय में जो विकल्प कहा है, वह यहां भी द्रष्टव्य है।
तीसरा उद्देशक समाप्त
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