________________
४८२
बृहत्कल्पभाष्यम्
शैक्ष के भी दो द्वादशक होते हैं। उनमें भी ज्ञायक और ज्ञापित-प्रत्येक के विकल्प करने पर चार द्वादशक होते हैं। ४६८३.अव्वाहए पुणो दाति, जावज्जीवपरादिए।
तद्दिण बीयदिणे या, सग्गामियरे य बारसहा।। अव्याहत, पुनः आने पर प्रव्रजित होऊंगा तथा यावज्जीव-पराजित-ये तीनों प्रकार के शैक्षों को उस दिन या दूसरे दिन न भेजन के छह प्रकार होते हैं। स्वग्राम और परग्राम के कारण बारह प्रकार के होते हैं। ४६८४.जाणंतमजाणते, णेइ व पेसेइ वा अमाइल्लो।
सो चेव उज्जुओ खलु, अणुज्जुतो जो ण अप्पेति॥ जो अमायावी आचार्य होता है वह जानता हुआ या न जानता हुआ शैक्षों को क्षेत्रिकों के पास ले जाता है या उनको भेजता है। वही ऋजुक कहलाता है। अऋजु वह है जो न उन शैक्षों को क्षेत्रिक मुनियों को अर्पित करता है और न उनको वहां भेजता है।
करनी चाहिए। इसमें मुंडित और इतर-प्रत्येक के चार नवक होते हैं। ४६७७.वाताहडे वि णवगा, तहेव जाणाविए य इयरे य।
एमेव य वत्थव्वे, णवगाण गमो अजाणते। वाताहत शैक्ष दो प्रकार के होते हैं-ज्ञापित और इतर। जो क्षेत्रिक साधुओं की यशःकीर्ति को भी नहीं जानता उसे आगंतुक साधु कहते हैं-तुम हमारे आभाव्य नहीं हो। जो यहां से विहार कर गए उनके आभाव्य हो। इस प्रकार यथार्थ बात कहने पर वह ज्ञापित कहलाता है। इतर अर्थात् यशःकीर्तिज्ञ। इनमें भी नवक होता है और वास्तव्य शैक्ष भी जो क्षेत्रिकों की यशःकीर्ति को नहीं जानता उसमें भी नवकों का प्रकार जानना चाहिए। ४६७८.वत्थव्वे वायाहड, सेवग परतित्थि वणिय सेहे य।
सव्वेते उज्जुगो अप्पिणाइ मेलाइ वा जत्थ॥ वास्तव्य या वाताहृत शैक्ष जो राजकुल का सेवक हो, जो परतीर्थिक हो या वणिक् हो-ये गुरु की यशःकीर्ति को नहीं जान पाते। जो आगंतुक आचार्य ऋजु होते हैं वे इन सबको क्षेत्रिक आचार्य को अर्पित कर देते हैं या जहां वे होते हैं वहां इनको प्रेषित कर देते हैं। ४६७९.माइल्ले बारसगं, जाग जाणाविए य चत्तारि।
वत्थव्वे वायाहड, ण लभति चउरो अणुग्घाया॥ जो मायावी होता है, वह नहीं भेजता। उसके बारह प्रकार आगे बताए जायेंगे। ज्ञायक और ज्ञापित को समुदित करने पर चार प्रकार होते हैं। वास्तव्य और वाताहृत शैक्ष को न भेजने पर चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त है। ४६८०.सत्तरत्तं तवो होती, ततो छेदो पहावई।
छेदेण छिण्णपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं॥ सात दिनों तक तप, उसके पश्चात् छेद, छेद के द्वारा अच्छिन्न पर्यायवाले मुनि को मूल, तदनन्तर द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। ४६८१.तरुणे मज्झिम थेरे, तद्दिण बितिए य छक्कगं इक्कं ।
एमेव परग्गामे, छक्वं एमेव इत्थीसु॥ ४६८२.पुरिसित्थिगाण एते, दो बारसगा उ मुंडिए होति।
एमेव य ससिहम्मि य, जाणग जाणाविए भयणा॥ तरुण, मध्यम और स्थविर-प्रत्येक को उस दिन या दूसरे दिन न भेजने पर एक प्रकार का षट्क होता है। यह स्वग्रामविषयक है। परग्राम विषयक भी यही षट्क है। सभी बारह प्रकार के षट्क पुरुष विषयक है तथा स्त्रीविषयक भी बारह प्रकार के षट्क होते हैं। ये दो द्वादशक पुरुष और स्त्रीयों के मुंडित विषय में होते हैं। इसी प्रकार शिखावाले
मि आगतो दिक्खितो बला हिं। अम्हे किमपव्वइया,
___पुट्ठा व ण ते परिकहेंसु॥ कहीं क्षेत्रिक आचार्य मिलने पर वे शैक्ष को पूछते हैंतुमने प्रव्रज्या कहां-कैसे ली? वह कहता है-मैं तो आपकी निश्रा में ही आया था। परन्तु इन मुनियों ने मुझे बलात् दीक्षित कर दिया। इन्होंने कहा-क्या हम प्रव्रजित नहीं जो तुम उनको पूछते हो, अथवा बिना पूछे वे कुछ नहीं कहते। ४६८६.वायाहडो तु पुट्ठो, भणाइ अमुगदिण अमुगकालम्मि।
एतेहिं दिक्खितोऽहं, तुम्हे वि सुणामि तत्थाऽऽसी॥ वाताहृत शैक्ष को पूछने पर कहता है-अमुक दिन और अमुककाल में मैं इनके द्वारा दीक्षित हुआ। दीक्षित होने के पश्चात् सुना कि आप भी वहीं थे। ४६८७.एमेव य जसकित्तिं, जाणतो जो य तं ण जाणाति।
तस्स वि तहेव पुच्छा, पावयणी वा जदा जातो॥ इस प्रकार यशःकीर्ति को जानने वाले शैक्ष अथवा नहीं जानने वाले शैक्ष को पूछने पर ही ज्ञात होता है। जब यह प्रावचनिक बहुश्रुत हुआ तब स्वतः जान लेता है कि यह शैक्ष हमारा आभाव्य नहीं है। ४६८८.एमेव य अच्चित्ते, दुविहे उवधिम्मि मीसते चेव।
पुच्छा अपुव्वमुवहिं, दट्ठण अणुज्जुभूयाणं॥ पूर्व में सचित्त शैक्ष विषयक विधि बतलाई गई है। इसी प्रकार अचित्त के दो भेद हैं-ओघोपधियुक्त तथा औपग्रहोपधियुक्त। इन उपधियों से मिश्रक होने पर सोपधिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org