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तीसरा उद्देशक
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४७२५.पुण्णेहिं पि दिणेहिं, उवसंतो अंतरा उ अण्णस्स। शैक्ष के पूछने पर यदि आचार्य को न देखा है और न
अभिधारिंतो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पव्वावे॥ सुना है तो कहे-मैं नहीं जानता। अन्य साधुओं को पूछो। दिनों के पूर्ण होने पर या न होने पर, मार्ग में चलता हुआ यदि वे विदेश गए हों तो उसे वे कहां हैं, उस देश का शैक्ष दूसरे से उपशांत होता है और वह अभिधारणा करता है नामोल्लेख करें। यदि यथार्थ बात नहीं कहता है तो यह कि मैं इनके पास प्रव्रज्या ग्रहण करूं, परंतु मैं पूर्वाचार्य का विपरिणामना है। ही शिष्य रहूंगा। किन्तु इतर अर्थात् जो उसको प्रवजित ४७३१.सेसेसु उ सब्भावं, णातिक्खति मंदधम्मवज्जेसु। करता है, उसका ही वह शिष्य होता है।
गृहयते सब्भावं, विप्परिणति हीणकहणे वा॥ ४७२६.ण्हाणादिसमोसरणे, दट्टण वि तं तु परिणतो अण्णं। मंदधर्मा के अतिरिक्त शेष ग्लान आदि पदों में यदि
तस्सेव सो ण पुरिमे, एमेव पहम्मि वच्चंते॥ सद्भाव नहीं कहता है, यथार्थ कथन नहीं करता है, स्नान आदि समवसरण में पूर्वाचार्य को देखकर भी यदि अथवा सद्भाव को छुपाता है, हीनकथन करता है, यह दूसरे को प्राप्त हो गया है तो वह उसीका शिष्य है, पूर्व विपरिणामना है। आचार्य का नहीं। इसी प्रकार मार्ग में जाते हुए भी आभाव्य ४७३२.सीसोकंपण गरिहा, हत्थ विलंबिय अहो य हक्कारे। और अनाभाव्य की विधि जान लेनी चाहिए।
वेला कण्णा य दिसा, अच्छतु णामं ण घेत्तव्वं ।। ४७२७.गेलन्न तेणग नदी, सावय पडिणीय वाल महि वासं। शैक्ष किसी आचार्य को अपने पूर्व आचार्य के विषय में
इइ समणे वाघातो, महिगावज्जो उ सेहस्स॥ पूछता है। आचार्य तीन प्रकार की गर्दा करते है-सबसे साधु ग्लान हो गया, चोर मिल गए, मार्गगत नदी पूर्ण पहले सिर को हिलाते हैं, हाथों को लटका कर गर्दा प्रगट रूप से बहने लगी, रास्ते में श्वापद की बहुलता है, प्रत्यनीक करते हैं उनके पास प्रव्रज्या! हाय! हाय! ऐसे आचार्यों से है, व्याल रास्ते में हैं, महिका या वर्षा प्रारंभ हो गई है-इस ही लोक नष्ट हुआ है। हा! ऐसे आचार्य का वेला-नाम भी प्रकार श्रमण के व्याघात हो सकता है। शैक्ष के भी महिका कहीं नहीं है, उसका नाम भी कभी नहीं सुना, वह जिस के अतिरिक्त सारे व्याघात होते हैं।
दिशा में है उस दिशा में भी नहीं ठहरना चाहिए, आंखें बंद ४७२८.विप्परिणामियभावो, ण लब्भते तं च णो वियाणामो। कर लेता है अथवा कहता है ऐसे आचार्य का नाम भी नहीं
विप्परिणामियकहणा, तम्हा खलु होति कायव्वा॥ लेना चाहिए। विपरिणामितभाव वाला शैक्ष विपरिणामक आभाव्य ४७३३.नाणे दंसण चरणे, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव। नहीं होता। शिष्य ने पूछा-विपरिणामक को हम नहीं जान अह होति तिहा गरहा, कायो वाया मणो वा वि॥ सकते। आचार्य कहते हैं-अतः उसकी चर्चा हमें करनी अथवा गर्दा तीन प्रकार की है-ज्ञान विषयक, दर्शन चाहिए।
विषयक और चारित्र विषयक। अथवा सूत्र विषयक, अर्थ ४७२९.दिट्ठमदिट्ठ विदेसत्थ गिलाणे मंदधम्म अप्पसुते।। विषयक, और तदुभय विषयक। अथवा काय-वाक् और मन
णिप्फत्ति पत्थि तस्सा, तिविहं गरहं व से जणति॥ यह तीन प्रकार की गर्दा होती है। किसी शैक्ष ने मार्ग में मिले साधु से पूछा-क्या तुमने ४७३४.पव्वयसि आम कस्स, त्ति सगासे अमुगस्स निद्दिढे। अमुक आचार्य को देखा है अथवा नहीं? वह उस शैक्ष को
आयपराधिगसंसी, उवहणति परं इमेहिं तु॥ विपरिणत करने के लिए कहता है-वे तो विदेश चले गए ४७३५.अबहुस्सुताऽविसुद्धं, अधछंदा तेसु वा वि संसग्गिं। हैं। उनके पास दीक्षित होने का अर्थ है-ग्लान होना। वे
ओसन्ना संसग्गी, व तेसु एक्वेक्कए दुन्नि। मंदधर्मा तथा अल्पश्रुत हैं। उनके शिष्यों की निष्पत्ति नहीं किसी शैक्ष को एक साधु ने पूछा-क्या तुम प्रव्रज्या लेना है। तीन प्रकार की गर्हा-मानसिक, वाचिक और कायिक चाहते हो? उसने कहा-हां! किस आचार्य के पास? उसने अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र विषयक गर्दा करना कहा-अमुक आचार्य के पास। ऐसा निर्दिष्ट करने पर स्वयं विपरिणामना है।
को दूसरे से अधिक बताने के अभिप्राय से, इन वचनों के ४७३०.जइ पुण तेण ण दिट्ठा,
द्वारा उपहास करते हुए कहता है-जिनके पास तुम प्रव्रजित __णेव सुया पुच्छितो भणति अण्णे। होना चाहते हो, वे अबहुश्रुत हैं, विशुद्ध नहीं हैं, यथाच्छंद जति वा गया विदेसं,
हैं-आग्रही हैं, आग्रही मनुष्यों से उनका संसर्ग है, अवसन्नतो साहइ जत्थ ते विसए॥ शिथिलाचारियों के साथ उनका संसर्ग है तथा पार्श्वस्थ आदि
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