________________
तीसरा उद्देशक
४८९ ४७४५.पायं सायं मज्झंतिए व वसभा उवस्सय समंता। ४७५०.दवियट्ठऽसंखडे वा, पुरिसित्थी मेहुणे विसेसो वि।
पेहंति अपेहाए, लहुगो दोसा इमे तत्थ॥ ___ एमेव य समणम्मि वि, संकाए गिण्हणादीणि॥ प्रातः, सायं और मध्याह्न में वृषभ उपाश्रय की चारों कोई धन के लिए या वैरभाव के कारण किसी को मारकर ओर से प्रत्युपेक्षणा करते हैं। प्रत्युपेक्षणा न करने पर उपाश्रय में निक्षिप्त कर दे, कोई स्त्री को मार कर, मैथुन विशेष लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा ये दोष होते हैं। के लिए हत्या कर उपाश्रय के पास फेंक देता है। इसी प्रकार ४७४६.साहम्मि अण्णधम्मिय,
इन कारणों से श्रमण की भी हत्या हो सकती है। संयत भी गारत्थिणि खिवण वोसिरण रज्जू। आशंका के भय से ग्रहण, आकर्षण आदि को प्राप्त होता है। गिण्हण-कड्डण-ववहार
४७५१.कालम्मि पहुप्पंते, चच्चरमादी ठवित्तु पडियरणं। पच्छकडुड्डाह-णिव्विसए॥
रक्खंति साणमादी, छण्णे जा दिट्ठमण्णेहि। साधर्मिणी-साध्वी, अन्यधर्मिणी, गृहस्थस्त्री कोई उस अतः तीनों वेला में प्रतिश्रय की प्रत्युपेक्षा अपेक्षित है। उपाश्रय के पास अर्थजात का निक्षेप कर दे अथवा बालक वहां कोई बालक आदि को देखे तो उसे चौराहे पर जाकर को छोड़कर चली जाए, परीषहों से घबरा कर कोई साधु रख दे और उसकी श्वान आदि से रक्षा करने के लिए ओट फांसी में लटक जाए, यह राजपुरुषों को ज्ञात होने पर ग्रहण, में बैठ जाए। वहां तब तक बैठा रहे जब तक कि दूसरे लोग आकर्षण, व्यवहार, पश्चात्कृत, उड्डाह, देशनिकाला देना। उस बालक को देख न लें। आदि दोष होते हैं।
४७५२.बोलं पभायकाले, करिति जणजाणणट्ठया वसभा। ४७४७.चोदणकुविय सहम्मिणि,
पडियरणा पुण देहे, परोग्गहे णेव उज्झंति॥ परउत्थिणिगी उ दिट्ठिरागेण। उपाश्रय की प्रतिलेखना करते समय यदि वृषभ हिरण्यअणुकंप जदिच्छा वा,
सुवर्ण वहां पड़ा देखे तो प्रभातकाल में ही लोगों को ज्ञात छुभिज्ज बालं अगारी वा॥ करने के लिए जोर-जोर से कहते हैं किसी दुष्ट ने साधुओं कोई साधर्मिणी साध्वी सन्मार्ग की ओर प्रेरित किए जाने को बदनाम करने के लिए यहां हिरण्य-सूवर्ण रख दिया है। पर कुपित होकर अपनी नाजायज संतान को उपाश्रय के पास व्यपरोपित यदि पुरुष देह उपाश्रय में पड़ा हो तो उसकी छोड़ जाती है। कोई परतीर्थिनी दृष्टिरागवश उपाश्रय के पास प्रतिचरणा करे किन्तु उसे दूसरे के अवग्रह में न रखें। कोई न बालक को रख देती है। कोई अगारी अपने दूधमुंहे बच्चे को देखे तो उसका परिष्ठापन कर दे। उपाश्रय में इसलिए छोड़ जाती है कि ये मुनि शय्यातर को ४७५३.अप्पडिचर-पडिचरणे, दोसा य गुणा य वण्णिया एए। देकर इस बालक का भरण-पोषण करा देंगे। इस अनुकंपा या एतेण सुत्त ण कतं, सुत्तनिवातो इमो तत्थ॥ यदृच्छा से उपाश्रय में रख जाती है।
उपाश्रय का अप्रतिचरण-अप्रत्युपेक्षण और प्रतिचरण४७४८.हाउं व जरेउं वा, अचदंता तेणगाति वत्थादी। प्रत्युपेक्षण से होने वाले दोष और गुण वर्णित हुए है, किन्तु
एएहिं चिय जणियं, तहिं च दोसा उ जणदिवें॥ इनके कथन के लिए सूत्र का निर्माण नहीं हुआ है। सूत्रनिपात स्तेन वस्त्र आदि को ढोने में असमर्थ होने पर उपाश्रय के इसलिए हुआ हैपास उसे फेंक जाते हैं अथवा वस्त्र आदि को 'जरीतु' न ४७५४.आगंतारठियाणं, कज्जे आदेसमादिणो केई। करने के कारण वहीं निक्षिप्त कर जाते हैं। लोक जब बच्चे वसिउं विस्समिउं वा, छड्डित्तु गया अणाभोगा॥ को वहां पड़ा देखते हैं तो सोचते हैं इन साधुओं ने ही इसे मुनि आगंतागार (धर्मशाला) में ठहरे हुए हैं। वे वहां जन्म दिया है। सुवर्ण, वस्त्र आदि का अपहरण किया है। किसी प्रयोजनवश ठहरे हैं-यही प्रस्तुत सूत्र बताता है। अतः वृषभ यदि प्रतिश्रय की प्रत्युपेक्षा नहीं करते हैं तो ये प्राघूर्णक आदि कई वहां रहकर अथवा विश्राम कर गए हैं। वे दोष होते हैं।
वहां कुछ द्रव्य (उपधि या भोजन) भूलकर गए हैं। ४७४९.अहवा छुभेज्ज कोयी, उब्भामग वेरियं व हतूणं। ४७५५. समिई-सत्तुग-गोरस-सिणेह-गुल-लोणमादि आहारे। वेहाणस इत्थी वा, परीसहपराजितो वा वि॥
ओहे उवग्गहम्मि य, होउवही अट्ठजातं वा॥ अथवा कोई प्रत्यनीक उद्भ्रामक-पारदारिक या वैरी को आहार में आटा या कणिका, सत्तू, गोरस, तैल या घी, मारकर उपाश्रय के पास रख जाता है या कोई स्त्री या गुड़, नमक आदि उपधि के दो प्रकार हैं-ओघ तथा परीषहों से पराजित कोई मुनि फांसी लेकर मर जाए। औपगहिक। अर्थ भी वहां छोड़ गए हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org