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बृहत्कल्पभाष्यम्
४७५६.काऊणमसागरिए, पडियरणाऽऽहार जाव अवरण्हे। ४७६१.साविक्खेतर णटे, एमेव य होइ उवहिगहणं पि।
एमेव य उवहिस्स वि, असुण्ण सेधाइ दूरे य॥ पच्चागएसु गहणं, भुंजति दिण्णेवमढे वि॥ वृषभ मुनि जब प्रतिश्रय की प्रत्युपेक्षणा करते हैं तब उस यदि पड़ौसी आदि ने सापेक्षरूप से अर्थात् पुनः लौटने आहार के द्रव्य को असागारिक प्रदेश में एकत्रित कर उसकी की भावना से पलायन किया है या निरपेक्षरूप से तो दोनों में प्रतिचरणा–संरक्षणा अपराह्न तक करते हैं। उपधि की भी। आहार और उपधि के ग्रहण की यही विधि है। सापेक्षरूप से प्रतिचरणा करते हैं। उसे भी अशून्य स्थान में रखते हैं। शैक्ष गए हुए जब लौट आते हैं तब उनके द्वारा दत्त या अनुज्ञात मुनियों को दोनों प्रकार के द्रव्यों से दूर रखते हैं।
का वे भोग करते हैं। जो निरपेक्षरूप से गए हैं, उनके आहार ४७५७.वोच्छिज्जई ममत्तं, परेण तेसिं च तेण जति कज्ज। का निर्विवादरूप से परिभोग करते हैं। अर्थजात का भी इसी
गिण्हता वि विसुद्धा, जति वि ण वोच्छिज्जती भावो॥ प्रकार ग्रहण करते हैं। अपराह्न के पश्चात् पथिकों का आहार के प्रति ममत्व ४७६२.पाउग्गमणुण्णवियं, जति मण्णसि एवमतिपसंगो त्ति। व्यवच्छिन्न हो जाता है। यदि साधुओं को उस आहार
आउरभेसज्जुवमा, तह संजमसाहगं जं तु॥ से प्रयोजन हो और वे उसे लेते हैं तो वे शुद्ध हैं। यद्यपि प्रश्न है-साधुओं के लिए प्रायोग्य की अनुज्ञापना होती उस आहार से उनका भाव व्यवच्छिन्न नहीं होता है, फिर है, यदि तुम ऐसा मानते हो तो अर्थजात अप्रायोग्य है और भी अपराह्न के पश्चात् उसको ग्रहण करने में कोई दोष उस अर्थजात को ग्रहण करना अतिप्रसंग होगा। भाष्यकार नहीं है।
कहते हैं अर्थजात एकान्ततः अप्रायोग्य नहीं है, क्योंकि यहां ४७५८.अव्वोच्छिन्ने भावे, चिरागयाणं पि तं पयंसिंति। आतुर-रोगी और भेषज की उपमा दी जाती है। जैसे किसी
पण्णवणमणिच्छंते, कप्पं तु करेंति परिभुत्ते॥ रोग में जो औषधि प्रतिषिद्ध है, वही अन्य अवस्था में उपधि तीन दिन पूर्ण होने के बाद ग्रहण करते हैं, क्योंकि अनुज्ञापित होती है, इसी प्रकार पुष्टकारण के अभाव में उस अवधि में उसके प्रति ममत्व मिट जाता है। यदि पथिकों अर्थजात प्रतिषिद्ध होता है, परन्तु दुर्भिक्ष आदि में संयम का का वस्त्रों के प्रति भाव व्यवच्छिन्न न होने पर वे उसकी साधक होने के कारण अनुज्ञात होता है। गवेषणा करते हुए आते हैं। चिरकाल से आए हुए उन पथिकों
से वत्थूसु अव्वावडेसु अव्वोगडेसु को मुनि वे वस्त्र दिखाते हैं और उनसे कहते हैं-हमने ये वस्त्र ले लिए हैं। आप उनकी अनुज्ञा दें। यदि अनुज्ञा देते हैं तो
अपरपरिग्गहिएसु अमरपरिग्गहिएसु अच्छा है, अन्यथा उनका परिभोग करने के कारण कल्प कर
सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा उन्हें दे देते हैं।
चिट्ठइ-अहालंदमवि ओग्गहे। ४७५९.पच्चोनियत्तपुट्ठा, करादि दाएंति एत्थ णं पेधे।
(सूत्र ३०) दरिसिंति अपिच्छंते, को पुच्छति केण ठवियं च॥ उपाश्रय में गिरे हुए अपने अर्थजात की गवेषणा करते हुए ४७६३.गिहिउग्गहसामिजढे, इति एसो उग्गहो समक्खातो। पथिक लौट कर आते हैं और साधुओं से पूछते हैं। तब मुनि सामिजढे अजढे वा, अयमण्णो होइ आरंभो॥ हाथ के इशारे से बताते हुए कहते हैं यहां देखो। यदि वे नहीं स्वामी द्वारा परित्यक्त जो गृहस्थ संबंधी अवग्रह है, देखते हैं तो मुनि स्वयं उन्हें दिखाते हैं। यदि वे पूछे कि यहां यह अवग्रह समाख्यात है। प्रस्तुत सूत्र में स्वामी द्वारा किसने रखा तो उनसे कहे-कौन पूछता है? किसने रखा है? त्यक्त या अत्यक्त अवग्रह होता है। यही प्रस्तुत सूत्र का हम नहीं जानते।
आरंभ है। ४७६०.भडमाइभया णद्वे, गहिया-ऽगहिएसु तेसु सज्झादी। ४७६४.खित्तं वत्थु सेतुं, केतुं साहारणं च पत्तेयं ।
गिण्हंति असंचइयं, संचइयं वा असंथरणे।। अव्वावडमव्वोअडमपरममरपरिग्गहे चेव॥ राजपुरुषों के भय से पलायन कर गए शय्यातर पड़ौसी क्षेत्र (खुली जमीन), वास्तु-गृह। क्षेत्र के दो प्रकार हैंआदि तथा ऋणदाता और ऋणी के घर से असंचयिक सेतु और केतु। जो क्षेत्र अरहट्ट से सींचा जाता है वह है सेतु आहार-दही, घृत आदि मुनि लेते हैं और यदि वह अपर्याप्त और जो वर्षाजल से निष्पन्न होता है वह है केत। क्षेत्र और हो तो संचयिक-मिठाई आदि भी लेते हैं। ,
गृह-दोनों दो-दो प्रकार के हैं-साधारण और प्रत्येक।' १. साधारणं-बहूनां सामान्यम्। प्रत्येक-एकस्वामिकम्। (वृ. पृ. १२८०)
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