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बृहत्कल्पभाष्यम्
प्रतिपक्ष पदों के आधार पर आठ विकल्प होते हैं। इसी ४७०२.मग्गंतो अन्नखित्ते, अभिधारंतो उ भावतो तस्स। प्रकार सशिखाक और अशिखाक के भी आठ-आठ खित्तम्मि खित्तियस्सा, बाहिं वा परिणतो तस्स॥ विकल्प होते हैं। सभी विकल्पों को मिलाने पर २४ विकल्प कोई शैक्ष आचार्य को खोजता हुआ अन्य क्षेत्र में जाता हो जाते हैं।
है। वहां कोई धर्मकथी मिल जाता है। वह उसको आकृष्ट ४६९८.पढम-बिति-ततिय-पंचम-सत्तम-नव-तेरसेसु भंगेसु। करने के लिए कुछ कहता है, परन्तु वह उसका आभाव्य
विप्परिणतो वि तस्सेव होइ सेसेसु सच्छंदो॥ नहीं होता। यदि वह धर्मकथी स्वभावतः कुछ कहता है तो __ इन विकल्पों में पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां, सातवां, वह धर्मकथी का आभाव्य हो जाता है। यदि क्षेत्र के भीतर नौवां और तेरहवें विकल्प में विपरिणत होने पर भी जिस उसे कुछ कहता है तो वह क्षेत्रिक का आभाव्य होता है आचार्य को निर्दिष्ट कर आया है, जिसको वह प्रास हुआ है, और क्षेत्र के बाहर धर्मकथी का आभाव्य होता है। क्षेत्र में उसी का आभाव्य होता है। शेष विकल्पों-चौथे, छठे, परिणत हुआ है तो क्षेत्रिक का आभाव्य है और बाहर आठवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें से चौबीसवें परिणत हुआ है तो धर्मकथी का आभाव्य है। विकल्प पर्यन्त अर्थात् इन सतरह विकल्पों में, उसकी ४७०३.अभिधारितो वच्चति, पुच्छित्ता साह वच्चतो तस्स। अपनी इच्छा है, जिसको वह चाहता है, उसीका आभाव्य ___ परिसागतो व कहई, कड्ढणहेउं न तं लभति॥ होता है।
किसी आचार्य की अभिधारणा कर शैक्ष जा रहा है। मार्ग ४६९९.सव्वो लिंगी असिहो,
में किसी साधु ने पूछा और उसको आकर्षित करने के लिए य सावतो जस्स अब्भुवगतो सो। 'साह'-धर्म कहता है। अथवा उसको साथ में लाकर परिषद् णिहिट्ठसण्णिलिंगी,
के अन्तर्गत उसे विशेषरूप से आकृष्ट करने के लिए धर्म
तस्सेवाणब्भुवगतो वि॥ कहता है। परंतु वह उसका आभाव्य नहीं होता। उसे वह नहीं सभी लिंगी, सशिखाक श्रावक जिसके पास गया है, मिलता। वह अभिधारित आचार्य का ही आभाव्य होता है। उसी के ये आभाव्य होते हैं। लिंगसहित अभ्युपगत है, वह ४७०४.उज्जु कहए परिणतं, अंतो खित्तस्स खित्तिओ लभइ। निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट संज्ञी या असंज्ञी हो-ये सारे जिसके खित्तबहिं तु परिणयं, लभतुज्जु कही ण खलु मादी॥ पास अभ्युपगत हैं, उसी के आभाव्य होते हैं।
यदि धर्मकथी ऋजुक होता है तो जो शैक्ष प्रव्रज्या में ४७००.अस्सन्नी उवसमितो, अप्पणो इच्छाइ अण्णहिं तस्स। परिणत होता है, यदि क्षेत्र के अभ्यन्तर परिणत होने पर वह
दट्ठणं च परिणए, उवसामिते जस्स वा खित्तं॥ क्षेत्रिक का आभाव्य है। क्षेत्र के बाहर परिणत होता है तो वह किसी धर्मकथी ने एक मिथ्यात्वी को प्रव्रज्याभिमुख धर्मकथी का आभाव्य है। मायावी धर्मकथी का वह आभाव्य किया। वह क्षेत्र यदि अन्य आचार्य का हो तो उसकी अपनी नहीं होता। इच्छा से वह आभाव्य होता है। क्षेत्र के बाहर ४७०५.परिणमइ अंतरा अंतरा य भावो णियत्तति ततो से। उपशांत-प्रव्रज्याभिमुख होने पर वह उस उपशांत करने वाले खित्तम्मि खेत्तियस्सा, बाहिं तु परिणतो तस्स। का आभाव्य होता है। वह किसी को देखकर स्वयं उपशांत किसी शैक्ष का प्रव्रज्याभाव बीच-बीच में परिणत होता है हुआ है, वह उनका आभाव्य होता है। अथवा वह जिसका तथा निवर्तित होता है। क्षेत्र में परिणत होने पर वह क्षेत्रिक क्षेत्र हो उसका आभाव्य होता है।
का आभाव्य होता है और बाहर परिणत होने पर धर्मकथिक ४७०१.परखित्ते वसमाणो, अइक्कमंतो व ण लभति असण्णिं। का आभाव्य होता है।
छंदेण पुव्वसण्णिं, गाहितसम्माति सो लभति॥ ४७०६.माया पिया व भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धूता य। परक्षेत्र अर्थात् मासकल्प या वर्षावास में रहता हुआ छप्पेते नालबद्धा, सेसे पभवंति आयरिया। अथवा उसका अतिक्रमण करता हुआ वहां रहता है तो स्वयं माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र तथा दुहिता ये छहों द्वारा उपशमित भी उसका नहीं होता। पूर्वसंज्ञी अर्थात् अनन्तवल्ली के आधार पर नालबद्ध माने जाते हैं। शेष जो जिसको पहले उपशांत किया था, वह उपशमक के अभिप्राय नालबद्ध नहीं होते वे प्रतीच्छक के आभाव्य नहीं होते, आचार्य से प्राप्त होता है। वह उपशमिक या क्षेत्रिक जिसको चाहता के आभाव्य होते है। है, उसका आभाव्य होता है। पूर्वसंज्ञी को जिसने सम्यक्त्व ४७०७.माउम्माया य पिया, भाया भगिणी य एव पिउणो वि। प्राप्त कराया है उसे वह प्राप्त होता है।
भातादिपुत्त-धूता, सोलसगं छ च्च बावीसं॥
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