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तीसरा उद्देशक = संस्तारक स्वामी को वह संस्तारक प्राप्त हुआ हो, साधुओं का कार्य अभी तक असमाप्त है तो दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना दी जाती है। यह सूत्रोक्त द्वितीय अवग्रह है। ४६४९.बितियं पभुनिव्विसए, णट्टट्ठिय सुन्न मयमणप्पज्झे।
असहू य रायदुढे, बोहिकभय सत्थ सीसे वा॥ यहां अपवादपद यह है-संस्तारक स्वामी को राजा ने देश से निकाल दिया, देश नष्ट हो गया, दुर्भिक्ष हो गया, घर शून्य कर कहीं चला गया, मर गया हो, साधु खोजने में असमर्थ हो, राजद्विष्ट हो गया हो, बोधिक भय, या अध्वशीर्षक-अटवी के कारण सार्थ के वशीभूत हो गया हो इन कारणों से वह मुनि संस्तारक की गवेषणा नहीं करता, वह प्रायश्चित्त का भागी भी नहीं होता। ओग्गह-पदं
जद्दिवसं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारयं विप्पजहंति, तद्दिवसं अवरे समणा निग्गंथा हव्वमागच्छेज्जा, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइअहालंदमवि ओग्गहे।
(सूत्र २८)
वादी मुनि दूसरे वादी का निग्रह करता है। इस प्रकार के उपक्रमों से प्रभावित होकर प्रव्रज्या के लिए प्रस्तुत होते हैं। ४६५२.नीरोगेण सिवेण य, वासावासासु णिग्गया साहू।
अण्णे वि य विहरंता, तं चेव य आगया खित्तं॥ कई मुनि स्वस्थ रहकर, बिना किसी उपप्लव के वर्षावास बिता कर उस क्षेत्र से विहार कर देते हैं। अन्य मुनि भी विहार करते हुए उसी क्षेत्र में आ गए। ऐसी स्थिति में अवग्रह का चिंतन होता है। ४६५३.खित्तोग्गहप्पमाणं, तदिवसं केति केतऽहोरत्तं।
जं वेल णिग्गयाणं, तं वेलं अण्णदिवसम्मि॥ कुछ आचार्य क्षेत्रावग्रह का कालप्रमाण इस प्रकार बताते हैं-जिस दिन साधु गए, वही एक दिन। कुछ आचार्य अहोरात्र तक अवग्रह। आचार्य कहते हैं-ये दोनों अनादेश हैं। विधि यह है-जिस वेला में वे गए, दूसरे दिन उसी वेला तक उनका अवग्रह रहता है। ४६५४.खेत्तम्मि य वसहीय य, उग्गहो तहिं सेहमग्गणा होइ।
ते वि य पुरिसा दुविहा, रूवं जाणं अजाणं च। __ अवग्रह क्षेत्रसंबंधी भी होता है और वसति संबंधी भी होता है। वहां शैक्ष की मार्गणा होती है। उस क्षेत्र में प्रव्रजित होने वाले पुरुष दो प्रकार के होते हैं-एक प्रकार के पुरुष वे होते हैं जो रूप को जानते हैं (पहचानते हैं), और एक प्रकार के वे पुरुष होते हैं, जो रूप को नहीं जानते। ४६५५.जाणंतमजाणंता, चउव्विहा तत्थ होति जाणंता।
उभयं रूवं सई, चउत्थओ होइ जसकित्तिं॥ शैक्ष दो प्रकार के होते हैं जानने वाले और नहीं जानने वाले। जानने वाले चार प्रकार के होते हैं-एक शैक्ष विवक्षित क्षेत्र में स्थित आचार्य के रूप और शब्द-दोनों को जानता है, दूसरा रूप को जानता है शब्द को नहीं, तीसरा न शब्द को जानता है और न रूप को, चौथा उनकी यश-कीर्ति को जानता है। ४६५६.उच्चार-चेइगातिसु, पासति रूवं विणिग्गयस्सेगो।
रत्तिं उविंत शिंतो, कासगमादी सुणति सई। ४६५७.चउत्थो पुण जसकित्तिं,
सुणेइ सग्गाम-वसभवासी वा। उभयं रूवं सई,
कित्तिं च ण जाणते चरिमो॥ वास्तव्य शैक्ष पांच प्रकार के होते हैं१. आचार्य उच्चारभूमी तथा चैत्यवंदन आदि के लिए बाहर जाते हैं, तब वह उनके रूप को देखता है, शब्दों से उनको नहीं जानता।
४६५०.उग्गह एव उ पगतो, सागारियउग्गहाउ साहम्मी।
रहितं व होइ खित्तं, केवतिकालेस संबंधो॥ प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह ही प्रस्तुत है। पूर्वसूत्रद्वय में सागारिक अवग्रह कथित है। प्रस्तुत में सागारिक अवग्रह के अनन्तर साधर्मिक अवग्रह कहा जा रहा है। अथवा पूर्वसूत्र में यह कहा गया है कि संस्तारक को संभला कर विहार करना चाहिए, यहां यह प्रतिपाद्य है कि साधुओं के विहार कर देने पर भी वह साधुओं से विरहित क्षेत्र कितने समय तक अवग्रहयुक्त होता है, यह निरूपित है। यही पूर्वसूत्र से संबंध है। ४६५१.सुत्त-उत्थ-तदुभयविसारए य खमए य धम्मकहि वाई।
कालदुअम्मि वसंते, उवसंतो स-अण्णगामजणो॥ सचित्त विषयक अवग्रह (शैक्ष विषयक) की उत्पत्तिकिसी क्षेत्र में साधु दोनों कालों ऋतुबद्ध और वर्षावास में रहते हैं। स्वग्रामजन या अन्यग्रामजन उनके प्रवचनों से उपशांत-प्रतिबुद्ध होते हैं। क्योंकि सूत्र, अर्थ और तदुभय के विशारद आचार्य विशिष्ट व्याख्यान करते हैं। कोई क्षपक, तपस्या करता है। कोई धर्मकथी धर्मकथा करता है। कोई
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