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बृहत्कल्पभाष्यम्
कहा। आचार्य ने कहा-'मैंने उसके टुकड़े कर दिए हैं।' चोर ३९०९.अववायाववादो वा, एत्थ जुज्जइ कारणे। को विश्वास नहीं हुआ तब आचार्य ने उसे टुकड़े दिखाए। सट्ठाणं व तमब्भेति, अच्छिज्जं जं उदाहडं। चोर ने रोष में आकर, टुकड़ों को पुनः सिलाकर रत्नकंबल अपवाद का अपवाद इन कारणों से योजनीय है। स्वस्थान ले लिया।
अर्थात् कृत्स्नवस्त्र भी जो अछेदनीय के रूप में उदाहृत है ३९०५.न पारदोच्चा गरिहा व लोए,
अर्थात् जिस वस्त्र की प्रमाणातिरिक्त किनारियां का छेदन थूणाइएसुं विहरिज्ज एवं। नहीं किया जाता वह कृत्स्नवस्त्र ही है। (अपवाद का अपवाद भोगाऽइरित्ताऽऽरभडा विभूसा,
जैसे-स्थूणा जनपद में कृत्स्नवस्त्र ग्रहण करना कल्पता कप्पेज्जमिच्चेव दसाउ तत्थ॥ है-यह उल्लेख अपवाद है। उसमें यह भी है कि किनारी का जहां 'पारदोच्च'-चोर का भय न हो, जहां के लोग छेदन किया जाए-यह अपवाद में उत्सर्ग है। किनारी से वस्त्र गर्हा न करते हों वहां स्थूणा आदि जनपदों में सकलकृत्स्न दृढ़ रहता है, इसलिए किनारी का छेदन न किया जाए, यह वस्त्र से प्रावृत होकर विहरण किया जा सकता है। परंतु अपवाद के उत्सर्ग का भी अपोह है-छेदन किया जाए यह उस वस्त्र की किनारी काट देनी चाहिए, क्योंकि किनारी अपवाद का अपवाद है।) वाले वस्त्रों का भोग नहीं कल्पता, वह अतिरिक्त उपधि हो ३९१०.देसी गिलाण जावोग्गहो उ भावम्मि होति बितियपदं। जाती है, उसकी प्रत्युपेक्षा करते समय आरभड दोष लगता तब्भाविते य तत्तो, ओमादिउवग्गहट्ठा वा॥ है, विभूषा मानी जाती है। इसलिए किनारी का छेदन कर देशी, ग्लान से लेकर अवग्रहपद तक भावकृत्स्न का देना चाहिए।
अपवाद पद है। तद्भावित व्यक्ति भावकृत्स्न का परिभोग कर ३९०६.पासगंतेसु बढेसु, दढं होहिति तेण तु। सकता है। अवमौदर्य तथा गच्छ के उपग्रह के लिए
__णातिदिग्घदसं वा वि, ण तं छिंदिज्ज देसिओ॥ भावकृत्स्न वस्त्रों को धारण करे। __ वस्त्र दोनों पाश्र्यों में किनारी से बंधा हुआ हो तो वह दृढ़ ३९११.देसी गिलाण जावोग्गहो उ दव्वकसिणम्मि जं वुत्तं। हो जाता है और लंबे समय तक काम में आ सकता है, तह चेव होति भावे, तं पुण सदसं व अदसं वा।। इसलिए उसकी किनारी न काटे। सिन्धु आदि जनपदों में देशी, ग्लान से लेकर अवग्रहद्वार में द्रव्यकृत्स्न का जो वस्त्र लंबी किनारी वाले नहीं होते, अतः उनकी किनारी का अपवादपद है वही भावकृत्स्न अपवादपद है। वह वस्त्र भले छेदन न किया जाए।
ही किनारी वाला हो या अकिनारीवाला-उसे अपवादपद में ३९०७.असंफुरगिलाणट्ठा, तेण माणाधियं सिया। ग्रहण किया जा सकता है।
सदसं वेज्जकज्जे वा, विसकुंभट्ठयाति वा॥ ३९१२.नेमालि तामलित्तीय, सिंधूसोवीरमादिसु। असंस्फर ग्लान वह होता है जो अत्यंत क्षीण होने के सव्वलोकोवभोज्जाइं, धरिज्ज कसिणाई वि॥ कारण पैरों को संकुचित कर सो नहीं सकता, उसके लिए नेपाल, ताम्रलिप्ती, सिन्धू-सौवीर जनपदों में सर्वलोकोपप्रमाण से अधिक लंबा वस्त्र भी ग्रहण किया जा सकता है। भोज्य कृत्स्नवस्त्रों को भी धारण किया जा सकता है। अथवा उसके चिकित्सक के प्रयोजन से, उसको देने के लिए ३९१३.आइन्नता ण चोरादी, भयं णेव य गारवो। तथा विषकुंभ-विषैले फोड़े के कारण किनारी वाला वस्त्र
उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधूमादीसु गरहितो॥ लिया जा सकता है।
नेपाल आदि देशों में लोकों द्वारा ऐसे वस्त्रों की ३९०८.अविभत्ता ण छिज्जंति, लाभो छिज्जिज्ज मा खलु। आचीर्णता है। वहां न भय है और न गौरव का प्रश्न है।
पारदोच्चाववादस्स, पडिपक्खो व होज्ज उ॥ सिन्धु आदि जनपदों में 'उज्झाइवत्थ' अर्थात् विरूप वस्त्र जब तक आचार्य वस्त्रों का विभाग न कर दे तब तक गर्हित माने जाते हैं। प्रमाणातिरिक्त वस्त्रों का छेदन न करे, क्योंकि वैसा करने से ३९१४.नीलकंबलमादी तु, उण्णियं होति अच्चियं । वस्त्रों के लाभ का व्यवच्छेद न हो जाए। स्थूणा आदि जनपद सिसिरे तं पि धारेज्जा, सीतं नऽण्णेण रुब्भति॥ में जो कृत्स्नवस्त्रों का प्रावरण अनुज्ञात है वह पारदोच्च महाराष्ट्र देश में नीलकंबल आदि और्णिक वस्त्र अर्चित (गाथा ३९०५) का अपवाद है। पारदोच्च का प्रतिपक्ष यह अर्थात् बहुमूल्य वाला माना जाता है। शिशिर में उसको है-अविभक्त वस्त्रों की किनारी का भी छेदन कर देना ओढ़े। उसके बिना अन्य कंबल से शीत को नहीं रोका जा चाहिए।
सकता।
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