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तीसरा उद्देशक =
एक वस्त्र श्वेत है, दूसरा सैन्धव वर्ण वाला है और तीसरा मलिन है। तब आचार्य स्वयं वहां जाते हैं और उसी वस्त्र को ग्रहण करते हैं। वे गृहस्थ आचार्य को अन्य वस्त्र दिखाते हैं, तब आचार्य उनके भावों को जानकर अन्य वस्त्रों को ग्रहण न करे। ४१७१.पुव्वगता भे पडिच्छह, अम्हे वि य एमु ता तहिं गंतुं।
गुरुआगमण कधेत्ता, णीणावेंताऽऽगते तम्मि॥ आचार्य प्रवर्तनी से कहते हैं-तुम वहां पहले जाओ और हमारी प्रतीक्षा करो। हम भी वहीं आ रहे हैं। आर्याएं गृहस्थ के घर जाकर गुरु के आगमन की बात कहती हैं और गुरु के आने पर उस गृहस्थ से कहती हैं-उन वस्त्रों को निकालो, जिनके लिए तुमने हमको निमंत्रित किया था। ४१७२.अन्नं इंद ति पुट्ठा, भणंति किह तुब्भ तारिसं देमो। _ इति भद्दे पंतेसु तु, धुणंति सीसं ण तं एतं॥
तब आचार्य कहते हैं-'ये वस्त्र वे नहीं हैं, जिनके लिए तुमने आर्याओं को निमंत्रित किया था।' यह पूछने पर गृहस्थ कहते हैं-'आचार्य! आपको वैसे वस्त्र कैसे दें?' इस प्रकार भद्र श्रावक कह सकते हैं और वर्णाढ्य वस्त्र प्रस्तुत करते हैं। जो प्रान्त श्रावक वर्णाढ्य वस्त्र देना चाहें तो आचार्य अपना शिर धुनते हैं और कहते हैं-ये वे वस्त्र नहीं हैं जो आर्याओं को दिखाए थे। ४१७३.बहु जाणिया ण सक्का, वंचेउं तेसि जाणिउं भावं।
णेच्छंति भद्दएसु तु, पहठ्ठभावेसु गेण्हति॥ तब वे गृहस्थ सोचते हैं-अरे! ये आचार्य तो बहुत जानते हैं। हम इनको नहीं ठग सकते। आचार्य भी उन दाताओं के भावों को जानकर वस्त्र-ग्रहण करना नहीं चाहते। प्रसन्नभाव वाले भद्रक श्रावकों से वस्त्र-ग्रहण करते हैं। ४१७४.न वि एयं तं वत्थं, जं तं अज्जाण णीणियं भे ति।
त अजाण णाणिय भ त्ति। तुब्भे इमं पडिच्छध, तं चिय एताण दाहामो॥ भद्रकों को भी आचार्य कहते हैं-ये वे वस्त्र नहीं हैं, जो वस्त्र आर्याओं को तुमने दिखाए थे। तब वे कहते हैं आप इन वस्त्रों को ग्रहण करें। हम उन्हीं वस्त्रों को आर्याओं को देंगे। ४१७५.अण्णेण णे ण कज्जं, एतट्ठा चेव गेण्हिमो अम्हे।
जति ताणि वि इति वुत्ते, णीणेति दुए वि गिण्हति॥ हमारे अन्य वस्त्रों से प्रयोजन नहीं है। हम इन आर्याओं के लिए ही वस्त्र ग्रहण कर रहे हैं। तब यदि वे गृहस्थ उन वस्त्रों को ले आते हैं, तब आचार्य उन वस्त्रों को तथा जो दूसरे वस्त्र दिखाए थे, दोनों का ग्रहण कर ले।
४२९ ४१७६.ताणि वि उवस्सयम्मि,सत्त दिणे ठविय कप्प काऊणं।
थेरा परिच्छिऊणं, विहिणा अप्पेंति तेणेव॥ उन वस्त्रों को लेकर उपाश्रय में आकर उनको सात दिनों तक स्थापित कर, फिर उनका कल्प करके स्थविर मुनि या आचार्य उन वस्त्रों को ओढ़कर उनका उपभोग कर परीक्षा करे और फिर उक्त विधि के अनुसार आर्याओं को अर्पित करे। ४१७७.आयरिए उवज्झाए, पवत्ति थेरे गणी गणधरे य।
गणवच्छेइयणीसा, पवित्तिणी तत्थ आणेति॥ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती, स्थविर, गणी, गणधर तथा गणावच्छेदी-इनकी निश्रा में वस्त्र ग्रहण करना चाहिए। इनके अभाव में प्रवर्तिनी गृहस्थकुलों में जाकर स्वयं वस्त्र लाए। ४१७८.आयरिए असधीणे, साहीणे वा वि वाउल गिलाणे।
एक्वेक्कगपरिहाणी, एमादीकारणेहिं तु॥ वहां यदि आचार्य स्वाधीन या अस्वाधीन हैं तथा वे कुलादि कार्य में व्याकुल-व्याप्त हैं अथवा ग्लान हैं तो उपाध्याय की निश्रा में वस्त्र ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार एक-एक के अभाव में अपर की निश्रा में वस्त्र-ग्रहण किया जा सकता है। इन कारणों से संयतियों का वस्त्र ग्रहण होता है। ४१७९.सुत्तणिवातो थेरी, गहणं तु पवत्तिणीय नीसाए।
तरुणीण य अग्गहणं, पवत्तिणी तत्थ आणेति॥ सूत्रनिपात अर्थात् सूत्र का आशय यह है कि आचार्य आदि के अभाव में प्रवर्तिनी की निश्रा में स्थविरा साध्वी स्वयं वस्त्र लाती है। तरुण साध्वियों को सामान्यतः वस्त्रग्रहण निषिद्ध है। प्रवर्तिनी स्वयं गृहस्थ के घर जाकर वस्त्र लाती है। ४१८०.साहू जया तत्थ न होज्ज कोई,
छदेज्ज णीया तरुणी जया य। पवत्तिणी गंतु सयं तु गेण्हे,
आसंकभीया तरुणी न नेति॥ आचार्य के साथ कोई गीतार्थ साधु नहीं है और जब तरुण साध्वी के संज्ञाती वस्त्र के लिए निमंत्रण देते हैं तो प्रवर्तिनी स्वयं जाकर वस्त्र ग्रहण करती है। वह अपाय की शंका से डरकर तरुण साध्वी को साथ नहीं ले जाती। ४१८१.असती पवत्तिणीए, आयरियादि व्व जं व णीसाए।
आगाढकारणम्मि उ, गिहिणीसाए वसंतीणं ।। प्रवर्तिनी के अभाव में आचार्य, उपाध्याय अथवा सामान्य साधु की निश्रा में विहरण करे, ग्रहण करे। आगाढ़ कारण
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