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=बृहत्कल्पभाष्यम्
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आचार्य वस्त्र की परीक्षा करेंगे, इसलिए हम उनको कहेंगी। वे वस्त्र को देखते ही हमारे वह योग्य है अथवा अयोग्य-यह जान लेंगे। परन्तु हम उस वस्त्र का प्रमाण और वर्ण पहले देख लें। फिर हम गुरु को उसका प्रमाण और वर्ण बतायेंगी। इस प्रकार वह वस्त्र साकारकृत कहलाता है। ऐसा न करने पर मासलघु। साकारकृत करके यदि प्रमाण और वर्ण से चिन्हित नहीं करते हैं तो मासगुरु। यदि गणिनी के समक्ष उस वस्त्र का प्रमाण और वर्ण को नहीं कहती हैं तो चतुर्लघु और यदि स्वनिश्रा से स्वयं उस वस्त्र को ग्रहण करती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ४१६३.जइ भे रोयति गिण्हध,
ण वयं गणिणिं गुरुं व जाणामो। इय वि भणिया वि गणिणो,
कधेति ण य तं पडिच्छंति॥ गृहस्थ कहते हैं-यदि आपको यह वस्त्र रुचिकर लगता हो तो आप इसे ग्रहण करें। हम न तो गुरुणी को जानते हैं
और न आचार्य को। फिर भी वे साध्वियां जाकर आचार्य को कहती हैं। परंतु वे स्वयं वस्त्र-ग्रहण नहीं करतीं। ४१६४.कतरो भे णत्थुवधी,
जो दिज्जउ भणह मा विसूरित्था। पुव्वुप्पण्णो दिज्जति,
तस्सऽसतीए इमा जयणा॥ आचार्य उन आर्याओं को कहते हैं-'बताओ, तुम्हारे पास कौनसी उपधि नहीं है, जो दी जा सकती है। उपधि के बिना खिन्न मत होओ।' तब वे आर्याएं जिस उपधि का अभाव है, उसको कहती हैं। वह यदि पहले प्राप्त है तो आचार्य उसे देते हैं। यदि वह प्राप्त न हो तो यह यतना है। ४१६५.नाऊण या परीत्तं, वावारे तत्थ लद्धिसंपण्णे।
गंधड्ढे परिभुत्ते, कप्पकते दाण गहणं वा॥ साध्वियों के पास उपधि का परीत्त अभाव जानकर आचार्य लब्धिसंपन्न मुनियों को उस उपधि की प्राप्ति के लिए व्यापृत करते हैं। वे मुनि वस्त्र लाकर आचार्य को समर्पित करते हैं। वे वस्त्र सुगंधित और परिभुक्त हो सकते हैं। उनका कल्प कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है-उन वस्त्रों को प्रक्षालित कर सात दिनों तक वैसे ही रखना चाहिए। यदि उनमें कोई विकृति न हो तो गणधर उन वस्त्रों को प्रवर्तिनी को दे दे और फिर प्रवर्तिनी के हाथों से आर्याएं ग्रहण करे।
४१६६.गुरुस्स आणाए गवेसिऊणं,
वावारिता ते अहछंदिया वा। दुधापमाणेण जहोदियाई,
गुरूण पाएसु णिवेदयंति॥ गुरु द्वारा व्याप्त अथवा यथाच्छन्दिक (आभिग्रहिकी) मुनि-दोनों आचार्य की आज्ञा से वस्त्रों की गवेषणा करते हैं और द्विधाप्रमाण-गणनाप्रमाण और प्रमाणप्रमाण से भगवान के कथनानुसार वस्त्रों को लाकर गुरु के चरणों में निवेदित करते हैं। ४१६७.गंधड्ड अपरिभुत्ते, वि धोविउं देति किमुअ पडिपक्खे।
गणिणीए णिवेदेज्जा, चतुगुरु सय दाण अट्ठाणे॥ जो गंधाढ्य वस्त्र हैं और अपरिभुक्त हैं, फिर भी उन्हें धोकर आर्याओं को देते हैं तो फिर परिभुक्त वस्त्रों की तो बात ही क्या? स्थविर मुनि सात दिनों तक उन प्रक्षालित वस्त्रों का उपभोग करते हैं और जब यह निश्चय हो जाता है कि ये वस्त्र आभियोगकृत नहीं हैं, तो गणधर उनको प्रवर्तिनी को समर्पित करते हैं। प्रवर्तिनी आर्याओं को वे वस्त्र देती है। यदि गणधर स्वयं आर्याओं को वे वस्त्र देते हैं तो उनको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। किसी एक साध्वी को वस्त्र देते हैं तो शेष साध्वियां अस्थान में स्थापित हो जाती है। अन्य साध्वियों के मन में शंका भी होती हैं। ४१६८.इहरह वि ताव मेहा, माणं भंजंति पणइणिजणस्स।
किं पुण बलाग-सुरचाव-विज्जुपज्जोविया संता।। इतरथा अर्थात् बलाका और इंद्रधनुष्य के बिना भी मेघ गगनमंडल में आकर गर्जन करते हुए प्रणयीजन के मान का भंजन करते हैं। उन मेघों की तो बात ही क्या जो बलाका, इन्द्रधनुष्य तथा विद्युत् से प्रद्योतित होते हैं? वे तो निश्चित ही प्रणयीजन के मान का भंजन करते ही हैं। (इसी प्रकार गणधर द्वारा एक साध्वी को वस्त्र देते हुए देखकर अन्य साध्वियां स्वयं को अपमानित समझती हैं।) ४१६९.दुल्लभवत्थे व सिया,आसण्णणियाण वा वि णिब्बंधे।
पुच्छंतऽज्जं थेरा, वत्थपमाणं च वण्णं च। वह प्रदेश दुर्लभवस्त्र वाला हो सकता है। साध्वियों के अतीव निकट के संबंधियों ने वस्त्र के लिए उन्हें निमंत्रित किया हो। उनके आग्रह को टाला नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में आचार्य आर्या को वस्त्र का प्रमाण और वर्ण के विषय में पूछते हैं। आर्या कहती है४१७०.सेयं व सिंधवण्णं, अहवा मइलं च ततियगं वत्थं ।
तस्सेव होति गहणं, विवज्जए भाव जाणित्ता।
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