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=बृहत्कल्पभाष्यम् ४५२४.संकिन्नवराहपदे, अणाणुतावी अ होइ अवरद्धे । आचार्य ने कहा-वे गृहस्थ असंयम भाव में स्थित गृहस्थों
उत्तरगुणपडिसेवी, आलंबणवज्जिओ वज्जो॥ का पालन-रक्षण करते हैं किन्तु संयम के लिए नहीं करते, जो मुनि उत्तरगुणविषयक अपराधपदों से संकीर्ण है तथा अपनी आजीविका आदि के निमित्त करते हैं। मुनि मुनियों का जो अपराध कर अनुताप नहीं करता, वह उत्तरगुण प्रतिसेवी पालन-रक्षण संयम के लिए तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति के आलंबन के बिना (ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आलंबन के लिए करते हैं। यह साधुओं और गृहस्थों में प्रतिविशेष है। बिना) प्रतिसेवना करता है तो वह कृतिकर्म के लिए वर्ण्य है। ४५३०.कुणइ वयं धणहेउं, धणस्स धणितो उ आगमं णाउं। (मूलगुणप्रतिसेवी तो नियमतः अचारित्री ही होता है।) _ इय संजमस्स वि वतो, तस्सेवऽट्ठा ण दोसाय॥ ४५२५.हिट्ठट्ठाणठितो वी, पावयणि-गणट्ठया उ अधरे उ। जैसे व्यापार करता हुआ धनिक आगम अर्थात् धन के ___ कडजोगि जं निसेवइ, आदिणिगंठो व्व सो पुज्जो॥ लाभ को जानकर धन का व्यय भी करता है अर्थात् शुल्क,
अधस्तनस्थान (जघन्य संयमस्थान) में स्थित मूलगुण- भाडा, कर्मकरों की नियुक्ति आदि करता है, इसी प्रकार प्रतिसेवी जो कृतयोगी है-गीतार्थ है वह प्रावचनिक-आचार्य, संयम का व्यय संयम के लिए ही करना दोषकारी नहीं होता। गुण, गच्छ के अनुग्रह के लिए अधर-अर्थात् आत्यन्तिक ४५३१.तुच्छमवलंबमाणो, पडति णिरालंबणो य दुग्गम्मि। कारण उत्पन्न होने पर जो प्रतिसेवना करता है वह भी सालंब-निरालंबे, अह दिट्ठतो णिसेवंते॥ आदिनिर्ग्रन्थ-पुलाक की तरह पूज्य होता है।
तुच्छ आलंबन लेने वाला या निरालंबन व्यक्ति गर्त आदि ४५२६.कुणमाणो वि य कडणं, कतकरणो णेव दोसमब्भेति। में गिर जाता है और जो पुष्ट आलंबन लेता है वह गर्त आदि ___ अप्पेण बहुं इच्छइ, विसुद्धआलंबणो समणो॥ से निकल जाता है। इसी प्रकार मूलगुणों की प्रतिसेवना करने
कृतकरण पुलाक मुनि कटकमर्द (सेना का नाश) करता वाले के लिए सालंब या निरालंब विषय का यह दृष्टांत हुआ भी दोष को प्राप्त नहीं होता। यह श्रमण विशुद्ध आलंबन घटित होता है। जो मुनि निरालंब अथवा अपुष्ट आलंबन से के कारण स्वल्प संयम के व्यय से बहुत संयम की इच्छा प्रतिसेवना करता है, वह संसार सागर में स्वयं को गिरा देता करता है।
है। जो पुष्टालंबनयुक्त होता है, वह भवसागर से पार चला ४५२७.संजमहेउं अजतत्तणं पि ण हु दोसकारगं बिति।। जाता है।
पायण वोच्छेयं वा, समाहिकारो वणादीणं॥ ४५३२.सेढीठाणे सीमा, कज्जे चत्तारि बाहिरा होति। पुलाक निर्ग्रन्थ संयम के निमित्त अयतना करता है,
सेढीठाणे दुयभेययाए चत्तारि भइयव्वा॥ उसको दोषकारक नहीं कहा जाता। जैसे समाधिकारक श्रेणीस्थान अर्थात् सीमास्थान। इसमें वर्तमान चार प्रकार अर्थात् वैद्य व्रण आदि पर लेपन कर उसे पकाता है और फिर के मुनि वक्ष्यमाण कार्य से बाह्य होते हैं। श्रेणीस्थान में रहने उसका छेदन करता है या रोगी को लंघन आदि कराता है, वाले (गच्छप्रतिबद्ध, यथालंदिक आदि चार प्रकार के मुनि यह सारी क्रिया परिणामसुन्दर होने के कारण सदोष नहीं भी द्विकभेद वाले कार्य-वंदनकार्य और कार्यकार्य में भजनीय मानी जाती।
हैं, वे कार्य करते भी हैं और नहीं भी करते। ४५२८.तत्थ भवे जति एवं, अण्णं अण्णेण रक्खए भिक्खू। ४५३३.पत्तेयबुद्ध जिणकप्पिया य सुद्धपरिहारऽहालंदे।
अस्संजया वि. एवं, अन्नं अन्नेण रक्खंति॥ एए चउरो दुगभेदयाए कज्जेसु बाहिरगा। दूसरा यह सोच सकता है कि इस प्रकार पुलाक आदि प्रत्येकबुद्ध, जिनकल्पिक, शुद्धपरिहारी और यथालंदिकभिक्षु अन्य अर्थात् आचार्य आदि की रक्षा अन्येन अर्थात् ये चारों द्विकभेदांतरगत कार्य-कृतिकर्म और कुलकार्य-इनसे स्कन्धावार का मर्दन करता है (एक का विनाश कर एक का बाह्य होते हैं। पालन करता है) तो इसी प्रकार गृहस्थ भी एक की दूसरे से ४५३४.गच्छम्मिणियमकज्जं, कज्जे चत्तारि होति भइयव्वा। रक्षा करते हैं अतः संयत और असंयत में कोई प्रतिविशेष
गच्छपडिबद्ध आवण्ण पडिम तह संजतीतो य॥ नहीं है।
गच्छ में नियमतः होने वाले ये कार्य होते हैं-कुलकार्य, ४५२९.न हु ते संजमहेउं, पालिंति असंजता अजतभावे। गणकार्य तथा संघकार्य-इनको करने के लिए ये चार प्रकार
अच्छित्ति-संजमट्ठा, पालिंति जती जतिजणं तु॥ के मुनि विकल्पनीय होते हैं (कार्य करते भी हैं और नहीं भी १. कार्य के दो प्रकार हैं-वंदनकार्य और कार्यकार्य। वंदनकार्य के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और कृतिकर्म । कार्यकार्य-कुलकार्य, संघकार्य आदि के भेद से
अनेक प्रकार का होता है। जो अवश्य कर्तव्यरूप कार्य होता है, वह कार्यकार्य है।
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