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इन्द्रियों से गुप्त, विकथा से विरत मुनि गृहान्तर में छन्न अथवा अच्छन्न प्रदेश में खड़े या बैठे हुए शांतमुख रहते हैं। बैठकर वे स्वाध्याय आदि के शेष पदों का यथायोग्य स्मरण करते हैं। ४५६५.थाणं च कालं च तहेव वत्थु,
आसज्ज जे दोसकरे तु ठाणे। ते चेव अण्णस्स अदोसवंते,
भवंति रोगिस्स व ओसहाई॥ स्थान, काल और वस्तु-ये जैसे किसी व्यक्ति के लिए दोषकारी होते हैं, वे ही स्थान, काल और वस्तु दूसरे व्यक्ति के लिए अदोषकारी होते हैं। जैसे जो औषधियां एक रोगी के लिए दोष करने वाली होती हैं, वे ही औषधियां दूसरे रोगी के लिए कोई दोष उत्पन्न नहीं करतीं।
नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावेत्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा। नण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा। से विय ठिच्चा, नो चेव णं अट्टिच्चा॥
(सूत्र २३)
बृहत्कल्पभाष्यम् एक गाथा भी यदि संहिता आदि के आधार पर व्याख्यायित की जाए तो वह महाप्रमाणवाली हो जाती है तो फिर पांच गाथाओं की तो बात ही क्या! यदि मुनि एक गाथा भी कहता है तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्लघु, आज्ञाभंग आदि दोष तथा अन्तरगृह में बैठने के दोष और ये वक्ष्यमाण अन्य दोष। ४५६९.गाहा अधीकारग, पोत्थग खररडणमक्खरा चेव।
साहारण पडिणत्ते, गिलाण लहुगाइ जा चरिमं॥ मुनि गोचरी के लिए निकला। गांव में एक व्यक्ति को अशुद्ध पाठ करते सुना। उसने उस व्यक्ति से कहा-गाथा का आधा भाग मैं बोलता हूं, आधा तुम बोलो। तुमने पुस्तकों से ही शास्त्र पढ़ा है, गुरुमुख से नहीं। तुम इस प्रकार खररटन-गधे की तरह रटन क्यों कर रहे हो? तुम केवल अक्षरों को ही जानते हो। पट्टिका लाओ, मैं तुम्हें सिखाता हूं। ऐसा करने पर ये दोष होते हैं-साधारण अर्थात् मंडली में भोजन करने वाले मुनि इस मुनि की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। यदि इस मुनि से किसी ग्लान की सेवा करने की प्रतिज्ञा की हो तो वह ग्लान उसकी प्रतीक्षा में परिताप आदि का अनुभव करता है। इस स्थिति में उस मुनि को चतुर्लघु से प्रारंभ कर पारांचिक तक प्रायश्चित्त प्राप्त हो सकता है। ४५७०.भग्गविभग्गा गाहा, भणिइहीणा व जा तुमे भणिता।
अद्धं से करेमि अहं, तुमं से अद्धं पसाहेहि।। गोचराग्र गया हुआ मुनि अशुद्ध गाथा को सुनकर उस गृहस्थ को कहता है-तुमने गाथा को भग्न-विभग्न और भणितिरहित कर डाला। उस गाथा के आधे भाग का अर्थ मैं कहता हूं और आधे भाग का अर्थ तुम करो। ४५७१.पोत्थगपच्चयपढियं, किं रडसे रासह व्व असिलायं।
अकयमुह! फलयमाणय, जा ते लिक्खंतु पंचग्गा॥ तुमने पुस्तक पर विश्वास करके पढ़ा है, गुरुमुख से नहीं। तुम रासभ की भांति विस्वर में क्यों रटन लगा रहे हो? हे अकृतमुख! (अक्षर संस्कार से रहित) तुम एक फलक (पट्टिका) ले आओ, मैं तुम्हारे योग्य पंचाय-पांच अक्षर लिखकर दूंगा। ४५७२.लहुगादी छग्गुरुगा,तव-कालविसेसिया व चउलहुगा।
अधिकरणमुत्तरुत्तर, एसण-संकाइ फिडियम्मि॥ भिक्षा के लिए पर्यटन करता हुआ यह सारा प्रपंच करने वाले के लिए यह प्रायश्चित्त है-आधी गाथा की बात कहने पर चतुर्लघु, पुस्तक की बात पर चतुर्गुरु, अक्षर सिखाने पर षड्लघु, खर-रटन पर षड्गुरु अथवा तप-काल से विशेषित चतुर्लघुक, अधिकरण-कलह और उत्तरोत्तर-उक्ति-प्रत्युक्ति
४५६६.अइप्पसत्तो खलु एस अत्थो,
जं रोगिमादीण कता अणुण्णा। अण्णो वि मा भिक्खगतो करिज्जा,
गाहोवदेसादि अतो त सत्तं॥ पूर्वसूत्र में रोगी आदि को अन्तरगृह में स्थान आदि करने की अनुज्ञा दी है। यह अर्थ अतिप्रसंग पैदा करने वाला है। दूसरा भी कोई भिक्षा के लिए निर्गत मुनि वहां अन्तरगृह में स्थित होकर गाथोपदेश आदि न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का निर्माण किया गया है। ४५६७.संहियकड्डणमादिक्खणं तु पदछेद मो विभागो उ।
सुत्तत्थोकिट्टणया, पवेतणं तप्फलं जाणे॥ भिक्षा के लिए निर्गत मुनि गृहस्थों के घर में बैठकर संहिताकर्षण आदि करता है। पदच्छेद और विभाग करता है। सूत्रार्थ का कथन करता है अर्थात् उनका उत्कीर्तन करता है। धर्म-फल का प्रवेदन करता है। ४५६८.एक्का वि ता महल्ली, किमंग पुण होति पंच गाहाओ।
साहणे लहुगा आणादिदोस ते च्चेविमे अण्णे॥
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