________________
बृहत्कल्पभाष्यम्
४६४ अनभिज्ञात होते हैं, तब तक वे अपने छद्मस्थ गुरु आदि को वंदना करते हैं। क्योंकि वे इसे व्यवहारलक्षणवाला धर्म जानते हैं। ४५०८.केवलिणा वा कहिए, अवंदमाणो व केवलिं अन्नं।
वागरणपुव्वकहिए, देवयपूयासु व मुणंति॥ __ वह केवली है, यह कैसे जाना जाता है? किसी अन्य केवली के कथन से, अन्य केवली को वंदना न करने पर, स्वयमेव उसका कथन करने पर, देवताओं द्वारा पूजामहिमा किए जाने पर, जान लिया जाता है कि यह केवली हो गया है। ४५०९.अविभागपलिच्छेया, ठाणंतर कंडए य छट्ठाणा।
हिट्ठा पज्जवसाणे, वुद्धी अप्पाबहुं जीवा॥ ४५१०.आलाव गणण विरहियमविरहियं फासणापरूवणया।
गणणपय सेढिअवहार भाग अप्पाबडं समया॥ श्रेणी प्ररूपणा-अविभागपरिच्छेद प्ररूपणा, स्थानान्तर प्ररूपणा, कंडक प्ररूपणा, षट्स्थान प्ररूपणा, अधः प्ररूपणा, पर्यवसान प्ररूपणा, वृद्धि प्ररूपणा, अल्पबहुत्व प्ररूपणा तथा । जीव प्ररूपणा।
जीव प्ररूपणा के प्रतिद्वार-आलाप प्ररूपणा, गणना प्ररूपणा, विरहित प्ररूपणा, अविरहित प्ररूपणा, स्पर्शना प्ररूपणा, गणनापद प्ररूपणा, श्रेष्यपहार प्ररूपणा, भाग प्ररूपणा, अल्पबहुत्व प्ररूपणा और समय (श्रमण) प्ररूपणा। ४५११.अविभागपलिच्छेदो, चरित्तपज्जव-पएस-परमाणू।
परमाणुस्स परूवण, चउव्विहा भावओऽणंता॥ अविभागपरिच्छेद केवली की प्रज्ञा से परिच्छिन्न होने पर जो अविभजनीय अंश शेष रहता है, उसे अविभागपरिच्छेद संयमस्थान कहते हैं। उसे चारित्रपर्याय, चारित्रप्रदेश या चारित्रपरमाणु कहते हैं। परमाणु की प्ररूपणा चार प्रकार से होती है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। चारित्रविभागपरिच्छेद अनन्तानन्तप्रमाण में होते हैं। ४५१२.ते कित्तिया पएसा, सव्वागासस्स मग्गणा होइ।
ते जत्तिया पएसा, अविभाग तओ अणंतगुणा॥ प्रश्न होता है कि चारित्र के प्रदेश कितने हैं? उत्तर में कहा गया है कि इसमें समस्त आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) की मार्गणा होती है। जितने सर्वाकाश के प्रदेश हैं, उनसे चारित्र के अविभागपरिच्छेद अनन्तगुणा है। यह सर्वजघन्य संयमस्थान है। ४५१३.एयं चरित्तसेटिं, पडिवज्जइ हिट्ठ कोइ उवरिं वा।
जो हिट्ठा पडिवज्जइ, सिज्झइ नियमा जहा भरहो॥ १. अन्यान्य संयमश्रेणियों की व्याख्या वृत्तिकार ने दी है।
इस चारित्रश्रेणी को कोई जीव अधःअर्थात् जघन्यसंयमस्थानों में स्वीकार करता है और कोई जीव उपरी संयमस्थानों में स्वीकार करता है। जो जीव अधस्तन संयमस्थानों में चारित्रश्रेणी को स्वीकार करता है, वह नियमतः उसी भव में सिद्ध हो जाता है, जैसे भरत। ४५१४.मज्झे वा उवरिं वा, नियमा गमणं तु हिट्ठिमं ठाणं।
अंतोमुहुत्त वुड्डी, हाणी वि तहेव नायव्वा।। जो जीव मध्यमवर्ती संयमस्थानों या उपरितन संयमस्थानों में चारित्रश्रेणी को स्वीकार करता है, वह नियमतः अधस्तन संयमस्थान तक गमन करता है और उसी भव में या अन्यभव में सिद्ध हो जाता है। अधस्तन संयमस्थान से उपरीतन संयमस्थान की वृद्धि तथा उपरितन से अधस्तन संयमस्थान की हानि अन्तर्मुहर्त्तमात्र की जाननी चाहिए। ४५१५.सेढीठाणठियाणं, किइकम्मं बाहिरे न कायव्वं ।
पासत्थादी चउरो, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ पूर्वोक्त संयमश्रेणी के स्थानों में स्थित मुनियों का कृतिकर्म करना चाहिए। जो श्रेणी से बाह्य हों उनका कृतिकर्म नहीं करना चाहिए। इस श्रेणी से बाह्य पार्श्वस्थ आदि चार प्रकार के मुनि हैं-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद। इन पांचों का एक भेद हुआ। काथिक, प्राश्निक, मामाक और संप्रसारक-यह दूसरा भेद है। अन्यतीर्थिक-यह तीसरा भेद है और गृहस्थ-यह चौथा भेद है।
इनका कृतिकर्म करने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ४५१६.लिंगेण निग्गतो जो, पागडलिंगं धरेइ जो समणो।
किध होइ णिग्गतो त्ति य, दिर्सेतो सक्करकुडेहिं। जो मुनि लिंग अर्थात् रजोहरण आदि से मुक्त हो गया है वह संयमश्रेणी से निर्गत होता है किन्तु जो श्रमण प्रकटलिंग धारण करता है वह संयमश्रेणी से निर्गत कैसे माना जा सकता है? आचार्य ने कहा यहां शर्कराकुटों का दृष्टांत ज्ञातव्य है। ४५१७.दाउं हिट्ठा छारं, सव्वत्तो कंटियाहि वेढित्ता।
सकवाडमणाबाधे, पालेति तिसंझमिक्खंतो॥ ४५१८.मुई अविद्दवंतीहिं कीडियाहिं स चालणी चेव।
जज्जरितो कालेणं, पमायकुडए निवे दंडो॥ एक राजा ने शर्करा से भरे दो घड़ों को मुद्रित कर दो व्यक्तियों को एक-एक घड़ा देते हुए कहा-इनकी सुरक्षा करना। जब मैं इनको मंगाऊं तब मुझे देना। दोनों ने एक-एक घड़ा ले लिया। उनमें से एक व्यक्ति ने अपने घट के नीचे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org