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बृहत्कल्पभाष्यम्
स्वयं के लिए उपभोग करते हैं। यदि कारणवश वहीं रहना पड़े तो दो मास के पश्चात् उनको ग्रहण किया जा सकता है अथवा कारणवश दो मास के मध्य में भी उन्हें ग्रहण कर सकता है। ४२९३.गच्छे सबाल-बुड्ढे, असती परिहर दिवड्डमासं तु।
पणतीसा पणुवीसा, पण्णरस दसेव एक्कं च॥ सबाल-वृद्ध गच्छ में वस्त्र का यदि अभाव हो तो डेढ़ मास का वर्जन कर अवन्तर वस्त्र लिए जा सकते हैं। यदि डेढ़मास का परिहार शक्य न हो तो २५ दिन का परिहार करे, यदि वह भी शक्य न हो तो पन्द्रह दिन या दस दिन या एक दिन का परिहार अवश्य करे। ४२९४.बाल-ऽसहु-वुड्ड-अतरंग
खमग-सेहाउलम्मि गच्छम्मि। सीतं अविसहमाणे,
गेण्हंति इमाए जयणाए॥ वस्त्र के अभाव में बाल, असहिष्णु, वृद्ध, ग्लान, क्षपकइनसे आकुल गच्छ में शीत को सहना असंभव होता है अतः इस वक्ष्यमाण यतना से स्वक्षेत्र या परक्षेत्र में वस्त्र ग्रहण कर सकते हैं। ४२९५.पंचूणे दो मासे, दसदिवसूणे दिवड्डमासं वा।
दस-पंचऽधियं मासं, पणुवीसदिणे व वीसं वा। ४२९६.पन्नरस दस य पंच व,दिणाणि परिहरिय गेण्ह एगं वा।
अहवा एक्कक्कदिणं, अउणट्ठिदिणाई आरब्भ॥ मुनि कारणवश आषाढ़ मास में वर्षावासक्षेत्र में स्थित हुए हों तो पांच दिन न्यून दो मास छोड़कर वस्त्र ग्रहण करें। अथवा दस दिवस न्यून दो मास, डेढ़ मास अथवा दस या पांच दिवस अधिक एक मास, पचीस दिन, बीस दिन, पन्द्रह दिन, दस दिन, पांच दिन यथाक्रम से छोड़कर वस्त्र लिए जा सकते हैं। यदि शीत सहन करने में असमर्थ हों तो चार दिन, तीन दिन, दो दिन छोड़कर वस्त्र ग्रहण किए जा सकते हैं। अथवा यहां एक-एक दिन की हानि करनी चाहिए। जैसे-जहां वर्षावास किया है वहां साठ दिनों के पश्चात् वस्त्र ग्रहण किया जा सकता है। कारणवश उनसठ दिनों से आरंभ कर एक-एक दिन की हानि करते हुए, एक दिन शेष रहते वस्त्र ग्रहण किया जा सकता है। ४२९७.बिइयम्मि समोसरणे, मासा उक्कोसगा दुवे होति।
ओमत्थगपरिहाणीय पंच पंचेव य जहण्णे॥ दूसरे समवसरण में अर्थात् ऋतुबद्धकाल में जहां उत्कृष्टतः एक मास रह चुके हैं तो दो मास उत्कृष्टतः १. उत्कृष्टतः चतुर्लघु, मध्यम मासिक और जघन्यतः पंचक।
छोड़कर फिर वस्त्र ग्रहण करें। कारणवश अवाङ्मुख परिहानि से पांच-पांच दिनों की हानि करते हुए जघन्यतः एक दिन का परिहार कर फिर वस्त्र लें। ४२९८.अपरिहरंतस्सेते, दोसा ते च्चेव कारणे गहणं।
बाल-वुड्ढाउले गच्छे, असती दस पंच एक्को य॥ ऋतुबद्धकाल में जहां एक मास रह गए वहां दो महीनों का परिहार करना चाहिए। यदि परिहार नहीं किया जाता है तो वे ही दोष प्राप्त होते हैं जो वर्षावास में दो महीनों का परिहार न करने पर होते हैं। कारण में वस्त्र-ग्रहण किया जा सकता है। बाल-वृद्धाकुल गच्छ में वस्त्र के अभाव में एकएक की परिहानि से दस-पांच अथवा एक दिन की परिहानि पर्यन्त यह क्रम करें। ४२९९.करणाणुपालयाणं, भगवतो आणं पडिच्छमाणाणं।
जो अंतरा उ गेण्हति, तट्ठाणारोवणमदत्तं। जो मुनि चरण-करण के अनुपालक हैं तथा जो भगवान् वर्द्धमान स्वामी की आज्ञा को यथावत् स्वीकार करते हैं, उनके द्वारा अगृहीत वस्त्रों को जो लेते हैं, उनको स्वस्थानप्रायश्चित्त आता है।' तथा वह अदत्त का ग्रहण भी होता है। ४३००.उवरिं पंचमपुण्णे, गहणमदत्तं गत त्ति गेण्हंति।
अणपुच्छ दुपुच्छा वा, तं पुण्णे गत त्ति गेण्हंति॥ परक्षेत्र में दो मास और पांच दिन न बीतने पर जो वस्त्रग्रहण करता है, उसके अदत्तादान दोष लगता है। यदि वे जान जाते हैं कि क्षेत्रस्वामी वहां से चले गए हैं तो अवधि पूर्ण होने से पूर्व भी वे ग्रहण करते हैं। यदि क्षेत्रस्वामी परदेश न गए हों तो वे बिना पूछे या दुःपृच्छा-अविधि से पूछकर ग्रहण करते हैं तो वे भी अदत्तादान दोष को प्राप्त होते हैं। अतः वे मुनि वस्त्र आदि का ग्रहण दो मास पूर्ण होने पर तभी करते हैं जब वे निश्चयरूप से जान लेते हैं कि क्षेत्रस्वामी परदेश चले गए हैं। ४३०१.गोवाल-वच्छवाला-कासग-आदेस-बाल-वुड्डाई।
अविधी विही उ सावग-महतर-धुवकम्मि-लिंगत्था॥ गोपाल, वत्सपाल, कृषक, अतिथि, बालक या वृद्धइनको पूछना अविधि पृच्छा है और श्रावक, महत्तर, ध्रुवकर्मिक-लोहकार, रथकार आदि तथा लिंगस्थ इनको पूछना विधिपृच्छा है। ४३०२.गंतूण पुच्छिऊण य, तेसिं वयणे गवेसणा होति।
तेसाऽऽगतेसु सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं॥ क्षेत्रस्वामी के पास जाकर विधिवत् पृच्छा कर, उनके वचन अर्थात् अनुज्ञा से वस्त्र-गवेषणा करनी चाहिए। वस्त्र
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