________________
तीसरा उद्देशक =
४५७ उनको राज्य के भोगों में संविभाग दिया। यह दृष्टांत है। अभ्युत्थान नहीं करते, बैठे रहते हैं तो उन्हें तथा जो इसका अर्थोपनय यह है
सूत्रार्थपौरुषी में संलग्न हों, पात्रों पर लेप लगा रहे हों, ४४३३.अहिराया तित्थयरो, इयरो उ गुरू उ होइ नायव्वो। प्रतिलेखना कर रहे हों, आइयण अर्थात् आहार कर रहे हों,
साहू जहा व दंडिय, पसत्थमपसत्थगा होति॥ धर्मकथा कर रहे हों, झपकियां ले रहे हों, ग्लान हों, तीर्थंकर अधिराजा (मूल राजा) के सदृश होते हैं। इतर उत्तमार्थ अनशन प्रतिपन्न हों-इन सबको आचार्य के आने पर अर्थात् मूल राजा तीर्थंकर द्वारा स्थापित दूसरे राजा के सदृश समुत्थान करना चाहिए। यदि समुत्थान नहीं करते हैं तो होते हैं गणाधिपति गुरु-आचार्य। तथा जैसे प्रशस्त- प्रायश्चित्त आता है। अप्रशस्तरूप दंडिक आदि होते हैं, वैसे ही दोनों स्वभाववाले ४४३८.दूरागयमुट्ठउं, अभिनिग्गंतुं नमंति णं सव्वे। होते हैं साधु।
दंडगहणं च मोत्तुं, दिढे उट्ठाणमन्नत्थ।। ४४३४.जह ते अणुट्टिहंता, हियसव्वस्सा उ दुक्खमाभागी। __ दूर से अर्थात् अन्यत्र से आचार्य को आते हुए जानकर
इय णाणे आयरियं, अणुट्टिहंताण वोच्छेदो॥ सभी मुनि उनकी अगवानी के लिए जाएं और वंदना करें। जैसे राजा के प्रति अभ्युत्थान आदि न करने वाले व्यक्ति आचार्य जब उपाश्रय में प्रवेश करें तब उनका दंड ग्रहण करें। अपने सर्वस्व को गंवा कर दुःख के आभागी बन जाते हैं, अन्यत्र गुरु को देखकर दंड को छोड़कर, अभ्युत्थान करें। इसी प्रकार जो साधु आचार्य आदि का अभ्युत्थान आदि से ४४३९.परपक्खे य सपक्खे, होइ अगम्मत्तणं च उठाणे। सत्कार नहीं करते उनके भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सुयपूयणा थिरत्तं, पभावणा निज्जरा चेव॥ व्यवच्छेद हो जाता है और वे अनेक प्रकार के दुःख पाते हैं। गुरु के प्रति अभ्युत्थान करने से परपक्ष तथा स्वपक्ष में ४४३५.उट्ठाण-सेज्जा -ऽऽसणमाइएहिं,
गुरु की अनभिभवनीयता द्योतित होती है। श्रुत की पूजा, गुरुस्स जे होति सयाऽणुकूला। संयम में स्थिरत्व होता है, शासन की प्रभावना और निर्जरा नाउं विणीए अह ते गुरू उ,
होती है। संगिण्हई देइ य तेसि सुत्तं॥ ४४४०.अकारणा नत्थिह कज्जसिद्धी, जो शिष्य आचार्य के प्रति अभ्युत्थान आदि में सजग
न याणुवाएण वदेति तण्णा। रहते हैं, उनके शय्या, आसन आदि की रचना में जागरूक उवायवं कारणसंपउत्तो, होते हैं इन क्रियाओं में जो सदा गुरु के अनुकूल होते हैं,
__ कज्जाणि साहेइ पयत्तवं च॥ उनको गुरु विनीत जानकर उनका संग्रहण करते हैं अर्थात् कार्यसिद्धि को जानने वाले कहते हैं कि कार्य की सिद्धि उनका पालन करते हैं और उनको श्रृत की वाचना देते हैं। उसके उपादानकारण के बिना नहीं होती तथा उपाय के बिना ४४३६.पज्जाय-जाई-सुततो य वुड्ढा,
भी नहीं होती। जो व्यक्ति उपायवान् तथा कारण से संप्रयुक्त जच्चन्निया सीससमिद्धिमंता।। होता है, वह प्रयत्नवान् पुरुष कार्यों को साध लेता है, कार्यों कुव्वंतऽवण्णं अह ते गणाओ,
की संपूर्ति कर लेता है। निज्जूहई नो य ददाइ सुत्तं॥ ४४४१.धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, जो शिष्य संयमपर्याय से वृद्ध, जन्म से वृद्ध, श्रुतसंपदा
धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए। से वृद्ध होते हैं वे आचार्य को अवमरत्नाधिक, बालक और
सा सोग्गई जत्थ अबाहया ऊ, अल्पश्रुत मानकर तथा अपने को जाति से उच्च तथा शिष्य
तम्हा निसेव्वो विणयो तदट्ठा। संपदा से समृद्ध मानते हुए आचार्य को हीन जाति वाला तथा तीर्थंकर कहते हैं-धर्म का मूल है विनय। धर्म सुगति का अल्पशिष्य परिवार वाला मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं, मूल है। सुगति वह है जहां कोई बाधा नहीं है। वह है सिद्धि। आचार्य उनको गण से पृथक् कर देते हैं। यदि नि!हण अतः सुगति प्राप्ति के लिए विनय का आचरण करना चाहिए। करना-पृथक् करना शक्य न हो तो आचार्य उनको श्रुत की ४४४२.मंगल-सद्धाजणणं, विरियायारो न हाविओ चेवं। वाचना नहीं देते।
एएहिं कारणेहिं, अतरंत परिण उट्ठाणं॥ ४४३७.मज्झत्थ पोरिसीए, लेवे पडिलेह आइयण धम्मे। अतरंत अर्थात् ग्लान तथा परिण-परिज्ञावान् (अनशनी)
पयल गिलाणे तह उत्तिमट्ठ सव्वेसि उट्ठाणं॥ ये दोनों जब आचार्य के आने पर अभ्युत्थान करते हैं तो आचार्य को आते हुए देखकर गच्छ के साधु यदि उनके मंगल होता है। उनको देखकर दूसरों में भी अभ्युत्थान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org