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बृहत्कल्पभाष्यम्
से मुक्त हैं, यहां कौन रहना चाहेगा? यह सोचकर वह संयमाभिमुख श्रमण दूसरे गच्छ में जाता है। उसके जाने से क्या हानि होती है? उस साधु के योग से होने वाली निर्जरा की हानि होती है। ४४६४.जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि।
सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो॥ जिस गच्छ में सारणा, वारणा और प्रतिनोदना नहीं है, वह गच्छ अगच्छ है। संयमकामी मुनि को चाहिए कि वह ऐसे गच्छ को छोड़ दे, उसमें न रहे। ४४६५.अयमपरो उ विकप्पो, पुव्वावरवाहय त्ति ते बुद्धी।
लोए वि अणेगविहं, नणु भेसज मो रुजोवसमे॥ प्रायश्चित्त का यह दूसरा विकल्प है, प्रकार है। इसे देखकर तुम सोचोगे कि यह कथन पूर्वापर व्याहत है, पहले कुछ था और अब कुछ और है। रोग के उपशमन के लिए लोक में भी अनेकविध औषधियां प्रचलित हैं। इसी प्रकार एक ही अनभ्युत्थान के लिए अनेकविध प्रायश्चित्त है और वह भी सकारण है। ४४६६.वीयार-साहु-संजइ-निगम-घडा-राय-संघ-सहिते तु।
लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगं॥ आचार्य के विचारभूमी से आने पर अभ्युत्थान न करने से मासलघु, साधुओं के साथ आने पर चतुर्लघु, साध्वियों के साथ आने पर चतुर्गुरु, निगम-पौरवणिग् के साथ आने पर षड्लघु, घट–महत्तरों के साथ आने पर छेद, संघ के साथ आने पर मूल, राजा के साथ आने पर अनवस्थाप्य, राजा और संघ के साथ आने पर पारांचिक-ये भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। ४४६७.देसिय राइय पक्खिय, चाउम्मासे तहेव वरिसे य।
लहु गुरु लहुगा गुरुगा, वंदणए जाणि य पदाणि॥ दैवसिक और रात्रिक आवश्यक में वंदना न देने पर मासलघु, पाक्षिक में न देने पर मासगुरु, चातुर्मासिक में चतुर्लघु, सांवत्सरिक में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वंदनक में जो पद हैं, उनको न करने पर असामाचारी निष्पन्न मासलघु का प्रायश्चित्त है। ४४६८.आयरियाइचउण्हं, तव-कालविसेसियं भवे एयं।
अहवा पडिलोमेयं, तव-कालविसेसओ होइ॥ यह उपरोक्त प्रायश्चित्त आचार्य, वृषभ, भिक्षु और क्षुल्लक-इन चारों के तप और काल से विशेषित होता है-(आचार्य के तप और काल से गुरु, वृषभ के तपोगुरु, भिक्षु के कालगुरु और क्षुल्लक के तप-काल से लघु।) अथवा इसे ही प्रतिलोम से कहा जाए-आचार्य के दोनों से
लघु, वृषभ के कालगुरु, भिक्षु के तपोगुरु और क्षुल्लक के तपो-कालगुरुक। ४४६९.दुगसत्तगकिइकम्मस्स अकरणे होइ मासियं लहुगं।
आवासगविवरीए, ऊणऽहिए चेव लहुओ उ॥ दैवसिक और रात्रिक में द्वि सप्तक अर्थात् चौदह वंदनक देने होते हैं। इनको न करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आवश्यक करते हुए विपरीत उच्चारण करने पर तथा कम या अधिक पदाक्षर बोलने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। ४४७०.दुओणयं अहाजायं, किइकम्मं बारसावयं।
चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं। दो अवनत (मस्तक झुकाकर प्रणमन), यथाजात-जब श्रमण हुआ तब जैसे वंदनक दिया, वैसे ही वंदनक देना, द्वादश आवर्त वाला कृतिकर्म (वंदनक), चार सिर से अवनमन, तीन गुप्लियों से गुप्त होकर वन्दनक देना, दो प्रवेश, एक निष्क्रमण-इन पचीस आवश्यकों को न करने पर प्रत्येक का मासलघु प्रायश्चित्त है। ४४७१.अणाढियं च थद्धं च, पविद्धं परिपिंडियं।
टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं ।। ४४७२.मच्छुव्वत्तं मणसा, य पउ8 तह य वेइयाबद्धं ।
भयसा चेव भयंतं, मित्ती-गारव-कारणा॥ ४४७३.तेणियं पडिणियं चेव, रुटुं तज्जियमेव य।
सढं च हीलियं चेव, तहा विप्पलिउंचियं ।। ४४७४.दिट्ठमदिटुं च तहा, सिंगं च कर मोअणं ।
आलिट्ठमणालिटुं, ऊणं उत्तरचूलियं॥ ४४७५.मूयं च ढवरं चेव, चुडलिं च अपच्छिमं ।
बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं पउंजए। अनादृत, स्तब्ध, प्रवृद्ध, परिपिंडित, टोलगति, अंकुश, कच्छपरिंगित, मत्स्य उवृत्त, मन से प्रद्विष्ट, वेदिकाबद्ध, भय से वंदनक देते हुए, शर्त लगाकर वंदनक देना (भजमान वंदनक) मैत्री से, गौरव से, कारण से, चौर्य से, प्रत्यनीकता से, रुष्ट वंदनक, तर्जना से, शठ वंदनक, हीलितवंदनक, विपरिकुंचित, दृष्टादृष्ट, शृंग, कर, मोचन, आश्लिष्टअनाश्लिष्ट, न्यून, उत्तरचूलिका, मूक, ढड्डर, चुडलिक मुनि को चाहिए कि वह इन बत्तीस दोषों से परिशुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करे। इन दोषों की व्याख्या निम्न गाथाओं में हैं४४७६.आयरकरणं आढा, तविवरीयं अणाढियं होइ।
दव्वे भावे थद्धो, चउभंगो दव्वतो भइतो॥ आदर करना आढ़ा है। उसके विपरीत अर्थात् आदर नहीं
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