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बृहत्कल्पभाष्यम्
४५४ ४४०५.सम-विसमा थेराणं, आवलिया तत्थ अप्पणो इच्छा।
खेल पवाय निवाए, पाहणए जं विहिग्गहणं॥ यदि वसति संकीर्ण हो तो आवलिका-पंक्तिबद्ध पद्धति से संस्तारक करें। यदि इस विधि से स्थविरों के विषम भूमी आए तो वे अपनी इच्छा से तरुण मुनियों के साथ उसका परावर्तन करें। जिस मुनि के श्लेष्म का प्रकोप हो वह अपने बिछौने के मध्य अवकाश रखता है तो एकांत स्थान में संस्तारक करे। जो मुनि पित्त प्रकृति का है वह प्रवात स्थान में सोना चाहता है और जो वायु प्रकृति (वातल) का है वह निवात-वायु रहित प्रदेश में सोना चाहता है। दोनों परस्पर स्थान का परावर्तन करें। यदि कोई प्राघूर्णक आ जाए तो उसे विधिपूर्वक शयनस्थान अनुज्ञापित करे। ४४०६.विसमो मे संथारो, गाढं पासा मि एत्थ भज्जंति।
को देज्ज मज्झ ठाणं, समं ति तरुणा सयं बेति॥ किसी स्थविर का शयनस्थान विषमभूमी में आ गया। वह समभूमी वाले तरुण को कहता है-'मेरा संस्तारक विषम है। यहां सोने पर मेरे दोनों पार्श्व अत्यंत पीड़ा करने लगते हैं। कौन मुझे सम स्थान देगा?' तब तरुण मुनि स्वयं कहते हैं-'हम आपको सम स्थान देंगे। आप हमारे शयनस्थान पर सोएं।' ४४०७.जइ पुण अत्थिज्जंता, न देति ठाणं बला न दावेति।
देति तहिं पुंछणादी, बहिभावाऽसंखडं मा वा॥ यदि याचना करने पर भी तरुण मुनि स्थान नहीं देते तो आचार्य आदि भी उनसे बलपूर्वक वह समस्थान नहीं दिलाते क्योंकि ऐसा करने पर तरुण मुनियों के मन में अन्यथाभाव आ सकता है अथवा कलह हो सकता है। अतः वे ऐसा नहीं करते। तब स्थविर मुनि विषम अवकाश में पादपोंछन आदि देकर सो जाते हैं। ४४०८.मज्झम्मि ठाओ मम एस जातो,
पासंदए निच्च ममं च खेलो। ठाओ सरावस्स य नत्थि एत्थं,
सिंचिज्ज खेलेण य मा हु सुत्ते॥ श्लेष्मल मुनि कहता है-मेरे संस्तारक के दोनों ओर यह स्थाय-अवकाश रहा है। मुझ में सदा श्लेष्मा उग्र बना रहता है। इस स्थिति में श्लेष्मा का मात्रक रखने का । अवकाश ही नहीं है। मैं यहां सोकर मेरे पार्श्ववर्ती सुप्त मुनियों को श्लेष्मा से खरंटित करूं, यह मैं नहीं चाहता। तब एकान्त स्थान में सुप्त मुनि उसको अपनी संस्तारकभूमी दे देता है।
४४०९.निदं न विंदामिह उव्वरेणं,
को मे पवायम्मि दएज्ज भूमि। सीएण वाएण य मज्झ बाहिं,
न पच्चए अन्नमहऽन्न आह।। पित्तल मुनि कहता है-यहां मैं उद्वर-गर्मी के उपताप से नींद नहीं ले पाता। कौन मुझे प्रवात-हवादार भूमी में शयन करने के लिए भूमी देगा? इतने में ही वातल मुनि कहता है-बाहर सोया हुआ मैं शीतल वायु से पीड़ित हो रहा हूं। उससे मेरा अन्न भी नहीं पच रहा है। (तब दोनों-पित्तल और वातल मुनि-परस्पर स्थान का परिवर्तन कर लेते हैं।) ४४१०.जोइंति पक्कं न उ पक्कलेणं,
ठावेंति तं सूरहगस्स पासे। एकम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी,
बज्झंति वग्घा न य पंजरे दो॥ जो पक्व अर्थात् कलहशील है, उसको दूसरे कलहशील के साथ योजित नहीं किया जाता। उसको शूरहक अर्थात् कलह आदि करने वालों को शिक्षित करने में समर्थ हो, उसके पास स्थापित करते हैं। एक ही आलानस्तंभ पर दो मत्त हाथियों को नहीं बांधा जाता और न एक ही पिंजरे में दो व्याघ्र रखे जाते हैं। ४४११.रायणिओ आयरिओ, आयरियस्सेव अक्कमइ ठागं।
इतरो वसभट्ठाए, ठायइ जे ते व दो ठागा। समागत प्राघूर्णक आचार्य से रत्नाधिक हैं, उनको वास्तव्य आचार्य का शयनीय स्थान प्राप्त होता है। वास्तव्य आचार्य वृषभ अर्थात् उपाध्याय के स्थान पर संस्तारक ग्रहण करते हैं। अथवा आचार्य के तीन स्थान निर्धारित होते हैं। उनमें से एक स्थान पर प्राघूर्णक आचार्य सो गए। अवशिष्ट दो स्थानों में से एक स्थान में वास्तव्य आचार्य सो जाते हैं। ४४१२.ओमो पुण आयरिओ, वसभोगासे अणंतरे वसभो।
संछोभरपरंपरओ, चरिमं सेहं च मोत्तूणं॥ यदि प्राघूर्णक आचार्य पर्याय से लघु हो तो वह वृषभ के स्थान पर सोता है। उसके पश्चात् वृषभ स्थान पाता है। यह संस्तारकों की 'संक्षोभपरंपरा' स्थानान्तरसंक्रमणरूप परंपरा तब तक जाननी चाहिए जब तक द्विचरम साधु न आ जाए। अर्थात् सर्वपाश्चात्यवर्ती स्थान में सोनेवाले शैक्ष का स्थान न आ जाए। इनके संस्तारक का संक्रमण नहीं करना चाहिए। ४४१३.चरिमो बहिं न कीरइ, सेहं न सहायगा विजुयलेंति।
रंगिद्धिपुरिसनायं, सव्वे तत्थेव माति॥ 'चरम' अर्थात् पर्यन्तवर्ती मुनि को बाहर नहीं करना चाहिए। वह शैक्ष अपने शिक्षक (सहायक) के साथ रहता है।
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