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बृहत्कल्पभाष्यम्
४३८५.कोट्ठग सभा व पुव्वं, काल-वियाराइभूमिपडिलेहा। ४३९०.सम-विसमाइं न पासइ, पच्छा अतिंति रत्तिं, अहवण पत्ता निसिं चेव॥
दुक्खं च ठियम्मि ठायई अन्नो। गांव में प्रवेश कर गोचरी में घूमते समय जो पहले नेव य असंखडादी, कोष्टक, सभा आदि स्थान देखे थे वहां कालग्रहणयोग्यभूमी
विणयो अममिज्जया चेव॥ तथा विचारभूमी की प्रत्युपेक्षा करे। पश्चात् सभी मुनि उस यदि वेंटिका को नहीं उठाया जाता है तो शयनस्थान के वसति में रात्रि (प्रदोष समय) में प्रवेश करे। अथवा रात्री में । विभाजनकाल में सम-विषम स्थान को नहीं देखा जा सकता ही वे साधु वहां आएं।
तथा पहले ही वेटिका सहित स्थित किसी साधु को उठाना ४३८६.गोम्मिय भेसण समणा,
भी मुश्किल होता है और वहां दूसरा मुनि भी बैठ नहीं निब्भय बहि ठाण वसहिपडिलेहा। सकता। वेंटिकाओं को उठा लेने पर असंखडी आदि दोष भी सुन्नघर पुव्वभणिए,
नहीं होते। तथा विनय प्रदर्शित होता है और संस्तारकभूमि
कंचुग तह दारुदंडे य॥ विषयक ममत्व भी परिहृत होता है। गौल्मिक (स्थानरक्षपाल) यदि त्रस्त करते हों तो उनको ४३९१.संथारग्गहणीए, कंटग वीयार पासवण धम्मे। कहे-'हम श्रमण हैं, चोर नहीं।' यदि वह सन्निवेश निर्भय हो पयलणे मासो गुरुओ, सेसेसु वि मासियं लहुगं। तो गच्छ बाहर ही रहता है और वृषभ वसति के प्रत्युपेक्षण संस्तारकग्रहणकाल में कोई माया से प्रताड़ित होकर यह के लिए गांव में जाते हैं। वहां पूर्वकथित विधि के अनुसार कहे-मैं यहां अभी कंटकोद्धरण करूंगा, विचारभूमी में । शून्यगृह की प्रत्युपेक्षा करते हैं और गोपालकंचुक को जाऊंगा, शय्यातर के आगे धर्म कहूंगा, यह कहता हुआ वह पहनकर दारुदंड से वसति के उपरी भाग को प्रस्फोटित वहां झपकियां लेने लगे इस प्रकार माया करने पर आज्ञाभंग करते हैं, पश्चात् गच्छ प्रवेश करता है।
आदि दोष, गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा कंटक आदि का ४३८७.संथारगभूमितिगं, आयरिए सेसगाण एक्कक्कं। माया पूर्वक कथन में लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। __ रुंदाए पुप्फकिन्ना, मंडलिया आवली इतरे॥ ४३९२.दुक्खं ठिओ व निज्जइ, न याणुवाएण पेल्लिउं सक्का। सबसे पहले आचार्य के लिए तीन संस्तारक भूमियों का
जो वि य णे अवणेहिइ, तं पि य नाहामि इति मंता॥ निर्धारण करना चाहिए-एक निर्वात भूमी, एक प्रवातभूमी ४३९३.संथारभूमिलुद्धो, भणाइ छंदेण भंते! गिण्हित्तो। और एक निवात-प्रवात। शेष साधुओं के लिए एक-एक ___संथारगभूमीओ,
कंटगमहमुद्धरामेणं॥ संस्तारक भूमी। वसति तीन प्रकार की होती है-विस्तीर्ण, कोई मुनि सम स्थान में संस्तारक करना चाहता है, परंतु छोटी, प्रमाणयुक्त। जो वसति रुन्द अर्थात् विस्तीर्ण होती है, वहां कोई दूसरा मुनि बैठा हुआ है, उसे वहां से अन्यत्र ले उसमें पुष्पों की भांति अवकीर्ण रूप से सोया जाता है, जाना कष्टप्रद होता है। उसे अन्य किसी उपाय से उठने के क्षुल्लिका वसति में मंडलिका के रूप में और जो प्रमाणयुक्त लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता। तब उससे कहा जाता होती है, उसमें पंक्तिबद्ध सोया जाता है।
है-'जो भी मेरे कांटे को निकालेगा उसे भी मैं जान लूंगा' यह ४३८८.सीसं इतो य पादा, इहं च मे वेंटिया इहं मज्झं।। मानकर संस्तारकभूमी में लुब्ध मुनि कहता है-भंते! आप
जइ अगहियसंथारो, भणाइ लहुगोऽहिकरणादी॥ वहां से उठकर अपनी इच्छानुसार दूसरी संस्तारकभूमी को यदि मुनि विधि का उल्लंघन कर यह कहे-यहां मैं सिर ग्रहण करें। यहां मैं इसके इस कंटक को निकालता हूं। यह करूंगा, इधर पैर और वेंटिका, भाजन आदि रखूगा। यदि वह मायाकरण है। संस्तारक न कर अपनी इच्छा से यह कहता है तो उसे ४३९४.लग्गे व अणहियासम्मि कंटए उक्खिवावे अन्नेणं। लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा अधिकरण आदि दोष मज्झच्चगमवणेत्ता, कमागयं गेण्हह ममं पि॥ होते हैं।
अथवा किसी मुनि के वास्तव में कांटा लग गया है। वह ४३८९.संथारग्गहणीए वेंटियउक्खेवणं तु कायव्वं। उसे सहन करने में असमर्थ है तब वेंटिका को दूसरे से उठाए
__ संथारो घेत्तव्वो, माया-मयविप्पमुक्केणं॥ और कहे-मेरा कांटा निकाल कर, क्रमागत मेरी भी
संस्तारक ग्रहण काल में वेंटिका का उत्क्षेपण किया संस्तारक भूमी को ग्रहण करें। जाए। जिसको जो संस्तारक (शयन स्थान) दिया जाता है ४३९५.एमेव य वीयारे, उज्जु अणुज्जू तहेव पासवणे। उसे वह मुनि माया और मद से विप्रमुक्त होकर ग्रहण करे।
धम्मकहालक्खेण व, आवज्जइ मासियं मादी।
रण हा
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