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तीसरा उद्देशक=
४४३ ग्रहण किया और वे क्षेत्रस्वामी आ गए तो उनको विधिपूर्वक क्षेत्रिकों को प्रत्यर्पित कर देते हैं, वे शुद्ध हैं। जो प्रत्यर्पित पूछकर जितना वस्त्र शुद्ध हो अर्थात् उनकी अनुज्ञा हो उतना नहीं करते, उनके वे ही पूर्वोक्त दोष होते हैं। आकुट्टी अर्थात् ग्रहण करें, शेष ग्रहण न करे।
आभोग से जानकर ग्लान के लिए ग्रहण किया, उसमें से ४३०३.उप्पन्न कारणाऽऽगंतु पुच्छिउं तेहि दिण्ण गेण्हंति।। ग्लान के लिए जितना आवश्यक हो उतना रखे, शेष का
तेसाऽऽगयेसु सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं॥ ग्रहण न करे। कारण उत्पन्न होने पर परक्षेत्र में वस्त्र-ग्रहण करने के लिए आते हैं। वे क्षेत्रस्वामी के पास जाकर पूछते हैं तथा आहाराइणियं वत्थादि-पदं उनके द्वारा अनुज्ञा प्राप्त कर वस्त्र-ग्रहण करते हैं। यदि शुद्ध अर्थात् मूल क्षेत्रस्वामी आ जाएं तो वे जितने वस्त्र-ग्रहण की
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अनुज्ञा देते हैं, उतना ही स्वीकार करे, शेष को न ले।
अहाराइणियाए चेलाइं पडिग्गाहित्तए। ४३०४.पडिजग्गंति गिलाणं, ओसहहेऊहि अहव कज्जेहिं।
(सूत्र १८) एतेहिं होति सुद्धा, अह संखडिमादि तह चेव॥ क्षेत्रिक मुनि मासद्वय पूर्ण जाने पर भी इन कारणों से नहीं ४३०८.दि8 वत्थग्गहणं, तेसिं परिभायणे इमं सुत्तं। आ पाते-वे ग्लान की परिचर्या में संलग्न हों. औषधि की
अविणय असंविभागा, अधिकरणादी य णेवं तु॥ गवेषणा कर रहे हों, अथवा कुल-गुण-संघ के कार्यों में व्यस्त द्वितीय समवसरण में वस्त्रग्रहण की विधि देख ली गई, हों-इन कारणों से रुके हुए मुनि शुद्ध हैं। जो संखडी आदि के ज्ञात हो गई। प्रस्तुत सूत्र उसके विभाजन की विधि बताता कारण रूके हैं, वे अशुद्ध हैं अर्थात् दो मास तक तो वह हूं। शिष्य ने पूछा कि विभाजन का क्या प्रयोजन? आचार्य उनका क्षेत्र था, पश्चात् वह क्षेत्र उनके स्वामित्व में नहीं कहते हैं-इस प्रकार यथारात्निक वस्त्रों का विभाजन कर रहता।
दिए जाने पर अविनय, असंविभाग तथा अधिकरण आदि दोष ४३०५.तेणभय सावयभया,
नहीं होते। वासेण णदीय वा वि (नि) रुद्धाणं। ४३०९.संघाडएण एक्कतो, हिंडती वंदएण जयणाए। दायव्वमौताणं,
साधारणऽणापुच्छा, उ अदत्तं एक्कओ भागा॥ चउगुरु तिविहं च णवमं वा॥ वस्त्रग्रहण करने के लिए एक दिशा में एक संघाटक विशुद्ध कारण ये हैं-स्तेनभय, श्वापदभय, वर्षाभय से ___ घूमता है। उसे वस्त्र प्राप्त नहीं हुए तब अनेक साधु तथा नदी के कारण अवरुद्ध हो गए हों-वे यदि विलंब से
यतनापूर्वक घूमते हैं। वह क्षेत्र साधारण है अर्थात् अनेक आते हैं तो भी उनके आने पर जो वस्त्र आदि पहले लिए हैं, आचार्यों के लिए समान है। उन सबको बिना पूछे वस्त्र उनको प्रत्यर्पित करे। जो ऐसा नहीं करता उसके तीन प्रकार आदि ग्रहण करना अदत्त दोष प्राप्त होता है, यह साधर्मिक का प्रायश्चित्त-पंचक, मासिक तथा चतुर्लघु अथवा 'नवक'- स्तैन्य है। पृच्छापूर्वक लेकर उन वस्त्रों का एक समान भाग सूत्र के आदेश से अनवस्थाप्य प्राप्त होता है।
करने चाहिए। ४३०६.परदेसगते गाउं, सयं व सेज्जातरं व पुच्छित्ता। ४३१०.निस्साधारण खेत्ते, हिंडतो चेव गीतसंघाडो। गेण्हंति असढभावा, पुण्णेसु तु दोसु मासेसु॥
उप्पादयते वत्थे, असती तिगमादिवंदेणं॥ क्षेत्रीय मुनियों को स्वयं भी परदेश गए हुए जानकर निस्साधारण क्षेत्र अर्थात् एक आचार्य के प्रतिबद्ध क्षेत्र में अथवा शय्यातर को पूछकर, अशठभाव से दो मास पूर्ण होने गीतार्थ संघाटक वस्त्रों के लिए घूमता है और वह वस्त्रों का पर वस्त्र ग्रहण करता है।
उत्पादन नहीं कर पाता तो तीन-चार-पांच साधुओं का समूह ४३०७.बिइयपदमणाभोगे, सुद्धा देता अदेंते ते च्चेव। पर्यटन करता है और वस्त्रों की प्राप्ति करता है।
आउट्टिया गिलाणादि जत्तियं सेस अग्गहणं॥ ४३११.दुगमादीसामण्णे, अणपुच्छा तिविह सोधि णवमं वा। इसमें अपवादपद यह है-अनाभोग अर्थात् यह सम्यक्
संभोइयसामन्ने, तह चेव जहेक्कगच्छम्मि॥ रूप से नहीं जान पाए कि यहां मुनियों ने वर्षाकल्प या जो क्षेत्र दो-तीन आदि आचार्यों का सामान्य क्षेत्र है, वहां मासकल्प किया या नहीं और वे परक्षेत्र में वस्त्र आदि ग्रहण बिना पूछे वस्त्र आदि ग्रहण करता है तो उसके तीन प्रकार कर लेते हैं, और सम्यग जान लेने पर गृहीत वस्त्र आदि की शोधि अर्थात् प्रायश्चित्त आता है-जघन्यतः पंचक,
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