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तीसरा उद्देशक =
४४७ यदि दोनों तरुण हों तो जो निष्पन्न है-सूत्रार्थ कुशल है, वह ४३४२.बाला य वुड्ढा य अजंगमा य, तारणीय है। दोनों निष्पन्न हों तो जो सपरिवार है, वह
लोगे वि एते अणुकंपणिज्जा। तारणीय है। दोनों सपरिवार हों तो जो लब्धिसंपन्न है सव्वाणुकंपाए समुज्जएहिं, उसको, दोनों लब्धिसंपन्न हों तो जो निकट है, वह तारणीय
विवज्जओऽयं कहमीहितो भे॥ है। दोनों निकट हों तो जो तैरने में अशक्त हो वह तारणीय बाल, वृद्ध और अजंगम ये लोक में भी अनुकंपनीय होते है। अभिषेक निष्पन्न ही होता है, अतः उसके साथ हैं। अतः सभी के द्वारा अनुकंपनीय होने के कारण आपने चार गम ही होते हैं। शेष भिक्षु आदि के साथ पांचों गम विपरीतता कैसे स्वीकार की? बाल और स्थविर को छोड़कर होते हैं।
आचार्य आदि का निस्तारण चाहते हैं, वृद्ध और अजंगम ४३३९.पवत्तिणि अभिसेगपत्ता,
आचार्य को छोड़कर तरुण आचार्य को तारणीय मानते हैं ? थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य। ४३४३.जइ बुद्धी चिरजीवी, तरुणो थेरो य अप्पसेसाऊ। गहणं तासिं इणमो,
सोवक्कमम्मि देहे, एयं पि न जुज्जए वोत्तुं। संजोगक (ग) मं तु वोच्छामि। यदि यह तुम्हारी बुद्धि है, विचारणा है तो सुनो, तरुण स्त्रियों के ये प्रकार हैं-प्रवर्तिनी, अभिषेकप्राप्ता- चिरजीवी होता है और स्थविर थोड़ी अवशिष्ट आयुष्य वाला प्रवर्तिनीपदयोग्य, स्थविरा, भिक्षुणी और क्षुल्लिका। इन होता है। देह सोपक्रम होता है, उसके विषय में चिरजीवी पांचों के ग्रहण विषयक यह संयोगगम-संयोग से अनेक आदि कहना भी उचित नहीं है। प्रकार वाला है, उसे मैं कहूंगा।
४३४४.अवि य हु असहू थेरो, पयरेज्जियरो कदाइ संदेहं । ४३४०.सव्वा वि तारणिज्जा, संदेहाओ परक्कमे संते।
ओरालमिदं बलवं, जं घेप्पइ मुच्चई अबलो॥ एक्कक्कं अवणिज्जा, जा गणिणी तत्थिमो भेदो॥ तथा स्थविर वृद्ध होने के कारण असहिष्णु होता है और ४३४१.तरुणी निप्फन्न परिवारा,
इतर अर्थात् तरुण कदाचित् प्राणसंदेह का पार पा जाता है। सलद्धिया जा य होइ अब्भासे।। आपका यह वचन भी स्थूल है कि बलवान् तरुण ग्रहण कर अभिसेगाए चउरो,
लेता है और अबल स्थविर छोड़ देता है।
सेसाणं पंच चेव गमा॥ ४३४५.आय-परे उवगिण्हइ, पराक्रम होने पर जलप्रवाह आदि संदेहों से सभी
तरुणो थेरो उ तत्थ भयणिज्जो। तारणीय हैं। यदि उतना पराक्रम न हो तो स्थविरा के
अणुवक्कमे वि थेवो, सिवाय चार, उसमें भी अशक्त हो तो क्षुल्लिका-स्थविरा
चिट्ठइ कालो उ थेरस्स॥ के सिवाय तीन, उतना भी पराक्रम न हो तो प्रवर्तिनी तब आचार्य कहते हैं-तरुण आचार्य स्वयं को और पर
और अभिषेका तारणीय हैं, उतना भी पराक्रम न हो तो को नए-नए सूत्रार्थों से उपकृत करता है। स्थविर आचार्य की प्रवर्तिनी (गणिणी) तारणीय हैं। अर्थात् एक-एक का इसमें भजना है। अनुपक्रम के आधार पर भी स्थविर का अपनयन करते हुए गणिणी पर्यन्त ऐसा करे। उसमें यह भेद आयुष्य थोड़ा ही होता है तथा तरुण का आयुष्य थोड़ा भी होता है।
हो सकता है और लंबा भी हो सकता है। यदि दो गणिणी हों, एक तरुणी और दूसरी स्थविरा। ४३४६.दुग्धासे खीरवती, गावी पुस्सइ कुटुंबभरणट्ठा। शक्ति हो तो दोनों तारणीय हैं, अन्यथा तरुणी तारणीय है।
मोत्तु फलदं च रुक्खं, को मंदफला-फले पोसे।। यदि दोनों तरुणियां हों तो जो निष्पन्न है-सूत्रार्थ कुशल है, दुर्गास अर्थात् दुर्भिक्ष के समय कुटुंब का भरण-पोषण वह तारणीय है। दोनों निष्पन्न हों तो जो सपरिवार है, वह करने के लिए बहुदुग्धा गाय का पोषण किया जाता है। फल तारणीय है। दोनों सपरिवार हों तो जो लब्धिसंपन्न है देने वाले वृक्षों को छोड़कर कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो मन्द उसको, दोनों लब्धिसंपन्न हों तो जो निकट है, वह तारणीय फल वाले अथवा फल न देने वाले वृक्षों का पोषण करेगा? है। दोनों निकट हों तो जो तैरने में अशक्त हो वह तारणीय इसी प्रकार हम भी तरुण आचार्य आदि का निस्तारण करते है। अभिषेका निष्पन्न ही होती है, अतः उसके साथ चार हैं, क्योंकि वे स्व और पर का उपग्रह करने में समर्थ होते हैं। गम ही होते हैं। शेष क्षुल्लिका आदि के साथ पांचों गम ४३४७.एमेव मीसए वी, नेयव्वं होइ आणुपुव्वीए। होते हैं।
वोच्चत्थे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥
पा,
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