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=बृहत्कल्पभाष्यम्
नहीं होती तो यथालघु प्रायश्चित्त का विधान है। जब तक वत्थगहण-पदं उसका अपत्य स्तन्य-पानोपजीवी होता है तब तक उस आर्या को तपोर्ह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। अपवादपद
निग्गंथीए य गाहावइकुलं में अवग्रहान्तक के अभाव में, उपाश्रय में रहती हुई पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठाए चेलद्वे अथवा वृद्ध आर्या हो तो अवग्रहान्तक को ग्रहण न भी कर
समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पइ अप्पणो सकती है।
नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पइ से ४१४३.सेविज्जते अणुमए, मूलं छेओ तु डिंडिमं दिस्स।
पवत्तिणिनीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए। होहिति सहातगं मे, जातं दट्ठण छग्गुरुगा॥ प्रतिसेवना का अनुमोदन करने पर मूल, गर्भ को देखकर
नो तत्थ पवत्तिणी सामाणा सिया जे हर्षित होने पर छेद, होने वाला पुत्र मेरा सहायक होगा, यह तत्थ सामाणे आयरिए वा उवज्झाए वा मानने पर षड्गुरु का प्रायश्चित्त आता है।
पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा ४१४४.तेण परं चउगुरुगा, छम्मासा जा ण ताव पूरिंति।
गणावच्छेइए वा, जं चण्णं पुरओ कट्ट जा तु तवारिह सोही, अणवत्थणिते ण तं देती।
विहरइ कप्पइ से तन्नीसाए चेलं प्रसव के अनन्तर छह मास जब तक पूरे नहीं होते तब
पडिग्गाहित्तए॥ तक वह आर्या जहां जहां आनंदित होती है, उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जब तक उसका अपत्य स्तन्यपान
(सूत्र १३) से विरत नहीं हो जाता तब तक उसे तपोर्ह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता।
४१४८.नियमा सचेल इत्थी, चालिज्जति संजमा विणा तेणं। ४१४५.मेहुण्णे गब्भे आहिते य सातिज्जियं जति ण तीए। उग्गहमादीचेलाण गेण्हणे तेण जोगोऽयं ।।
परपच्चया लहुसगं, तहा वि से दिति पच्छित्तं॥ नियमतः स्त्री-निर्ग्रन्थी सचेल ही होती हैं। वस्त्रों के बिना प्रतिसेव्यमान मैथुन के समय तथा गर्भ रह जाने पर भी वह संयम से च्युत हो जाती है। यह प्रस्तुत सूत्र में बताया उस आर्या ने उसका अनुमोदन नहीं किया, फिर दूसरों के गया है। इसलिए अवग्रहान्तक आदि वस्त्रों के ग्रहण की प्रत्यय के लिए आचार्य उसे लघु प्रायश्चित्त देते हैं। विधि बताई जाती है। यही इस सूत्र का योग है, संबंध है। ४१४६.खिसाए होति गुरुगा,
४१४९.चेलेहि विणा दोसं, णाउं मा ताणि अप्पणा गेण्हे। लज्जा णिच्छक्कतो य गमणादी।
तत्थ वि ते च्चिय दोसा, तव्वारणकारणा सुत्तं।। दप्पकते वाऽऽउट्टे,
वस्त्रों के बिना आर्या के अनेक दोष होते हैं, यह जानकर जति खिसति तत्थ वि तहेव॥ वे आर्याएं स्वयं वस्त्र ग्रहण न करें। क्योंकि स्वयं वस्त्र ग्रहण जो उस आर्या की खिंसना करता है उस मुनि या साध्वी करने में वे ही दोष होते हैं जो पहले वस्त्र के ग्रहण न करने को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तिरस्कृत होने पर पर होते हैं। प्रस्तुत सूत्र स्वयं के ग्रहण का प्रतिषेध करने के वह आर्या लज्जा से प्रतिगमन कर सकती है अथवा और लिए है। अधिक निर्लज्ज हो सकती है। अथवा दर्प से उसने ४१५०.सयगहणं पडिसेहति, चेलग्गहणं ण सव्वसो तासिं। प्रतिसेवना की, फिर आलोचना आदि कर प्रतिनिवृत्त हो गई। संडासतिरो वण्ही, ण डहति कुरुए य किच्चाई॥ उस आर्या की भी जो कोई खिंसना करता है, वह भी चतुर्गुरु प्रस्तुत सूत्र स्वयं के ग्रहण का प्रतिषेध करता है, न प्रायश्चित्त का भागी होता है।
सर्वथा उनके वस्त्रों का प्रतिषेध करता है। संडासी से गृहीत ४१४७. उम्मग्गेण वि गंतुं, ण होति किं सोतवाहिणी सलिला।। अग्नि नहीं जलाती प्रत्युत धान्य पकाना आदि अनेक कार्य
कालेण फुफुगा वि य, विलीयते हसहसेऊणं॥ करती है। इसी प्रकार आर्याओं के लिए साधुओं द्वारा वस्त्रक्या उन्मार्ग में बहने वाली नदी स्रोतोवहिनी-मार्गगामी ग्रहण दूषित नहीं होता, प्रत्युत वह उनकी साधुचर्या में नहीं होती? जाज्वल्यमान करीषाग्नि भी कालान्तर में विलीन सहायक होता है। हो जाती है। वैसे ही उद्दीप्त कामाग्नि भी कालान्तर में ४१५१.चेलद्वे पुव्व भणिते, पडिसेहो कारणे जहा गहणं। उपशांत हो जाती है।
णवरं पुण णाणत्तं, णीसागहणं ण उ अणीसा॥
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