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तीसरा उद्देशक =
%D ४२७ __पूर्व अर्थात् प्रथम उद्देशक में वस्त्र विषयक जो चर्चा है ४१५६. वत्थेहि वच्चमाणी, दाएंती वा वि उयध वत्थे मे। तथा आर्याओं को स्वयं वस्त्र-ग्रहण करने का प्रतिषेध किया मच्छरियाओ बेंती, धिरत्थु वत्थाण तो तुज्झं। गया है और कारण में ग्रहण करने की अनुज्ञा है, उसी ४१५७.हिंडामो सच्छंदा, णेव सयं गेण्हिमो य पवयामो। प्रकार यहां भी समझना चाहिए। यहां विशेष इतना ही है कि
ण य जं जणो वियाणति, कम्मं जाणामो तं काउं॥ यदि आर्याएं स्वयं वस्त्रग्रहण करती हैं तो वे किसी की कोई आर्यिका गौरववश वस्त्रों से अपने-आपको ख्यापित निश्राय में करें, अनिश्राय में नहीं। (वृत्तिकार ने निश्रा को इस करती है, अथवा स्वयं आनीत वस्त्रों को दिखाती हुई कहती प्रकार समझाया है-आर्या प्रवर्तिनी को वस्त्रदाता के विषय में है-'उयह'-देखो-मेरे वस्त्रों को। दूसरी आर्यिकाएं मत्सरवश बताती है। प्रवर्तिनी गणधर को निवेदन करती है। गणधर कहती हैं-धिक्कार है तुमको तथा तुम्हारे वस्त्रों को जो तुम स्वयं जाकर वस्त्र को परीक्षाशुद्ध कर ग्रहण करता है। यह स्वयं की इतनी प्रशंसा कर रही हो। तुम जैसे स्वच्छंद घूमती निश्रा है।)
हो, वैसे हम नहीं घूमतीं और न हम स्वयं वस्त्र ग्रहण करती ४१५२.आयरिओ गणिणीए,
हैं और न आत्मश्लाघा करती हैं। तुम जैसे कंटल आदि कर्म पवत्तिणी भिक्खणीण ण कधेति।। करना जानती हो वैसा कर्म हम नहीं जानतीं। गुरुगा लहुगा लहुगो,
४१५८.जम्हा य एवमादी, दोसा तासिं तु गिण्हमाणीणं । तासिं अप्पडिसुणंतीणं।
तम्हा तासि णिसिद्धं, वत्थग्गहणं अणीसाए। आचार्य यदि प्रस्तुत सूत्र को गणिनी को नहीं बताते हैं तो आर्याओं के वस्त्र-ग्रहण के ये दोष होते हैं इसीलिए चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी यदि भिक्षुणियों को अनिश्रा से वस्त्र-ग्रहण आर्याओं के लिए निषिद्ध है। नहीं कहती है जो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। जो भिक्षुणियां ४१५९.सुत्तं णिरत्थगं खलु, कारणियं तं च कारणमिणं तु। इसे स्वीकार नहीं करतीं, उनको मासलघु का प्रायश्चित्त है। असती पाउग्गे वा, मन्नक्खो वा इमा जतणा॥ ४१५३.मिच्छत्ते संकादी, विराहणा लोभे आभियोगे य। शिष्य ने कहा-तब तो यह सूत्र निरर्थक है। सूरी कहते
तुच्छा ण सहति गारव, भंडण अट्ठाणठवणं च॥ हैं-यह सूत्र कारणिक है। कारण यह है-आर्याओं के वस्त्र पुरुष द्वारा आर्याओं को वस्त्र देते हुए देखकर शैक्ष को नहीं हैं अथवा प्रायोग्य वस्त्र नहीं हैं अथवा आर्याओं के मिथ्यात्व आ सकता है, शंका आदि दोष हो सकते हैं। संज्ञातकों में 'मन्नक्खो'-महान् दौर्मनस्य हो जाता है तब यह विराधना, वस्त्रदान से प्रलोभन, अभियोग, तुच्छ होने के यतना करनी होती है। कारण गौरव को सहन नहीं कर पाती, भंडण, अस्थानस्थापन ४१६०.तरुणीण य पव्वज्जा, णियएहिं णिमंतणा य वत्थेहिं। आदि होते हैं। (व्याख्या आगे के श्लोकों में)
पडिसेहण णिब्बंधे, लक्खण गुरुणो णिवेदेज्जा। ४१५४.इत्थी वि ताव देंती, संकिज्जइ किं णु केणति पयुत्ता। किसी आचार्य के पास अनेक तरुण स्त्रियों ने प्रव्रज्या
किं पुण पुरिसो देंतो, परिजुण्णाई पि जुण्णाए॥ ग्रहण की। दूरस्थ देश में विहरण कर पुनः उसी गांव में स्त्री भी यदि आर्या को वस्त्र देती है तो यह शंका होती है आचार्य का आगमन हुआ। तब उन तरुण साध्वियों के कि क्या किसी कामुक व्यक्ति से प्रेरित होकर यह वस्त्र दे संबंधियों ने वस्त्र लेने के लिए निमंत्रण दिया। साध्वियों ने रही हैं या धर्मार्थ ? पुरुष की तो बात ही क्या ? यदि वह कहा-हमें वस्त्र लेना नहीं कल्पता। अत्यन्त आग्रह करने पर जीर्ण वस्त्र भी वृद्ध आर्या को देता है तो भी शंका का स्थान उन ज्ञातिजनों से कहे-हमारे गुरु ही वस्त्र के लक्षणों को बना रहता है।
जानते हैं, इसलिए हम गुरु को निवेदन करेंगी। ४१५५.नामिज्जइ थोवेणं, जच्चसुवण्णं व सारणी वा वि। ४१६१.थेरा परिच्छंति कधेमु तेसिं, अभियोगियवस्थेण व, कड्डिज्जइ पट्टए नातं॥
णाहेति ते दिस्स अजोग्ग जोग्गं। जात्यस्वर्ण और सारणी-नौका या नाला थोड़े से प्रयत्न पिच्छामु ता तस्स पमाण-वण्णे, से मुड़ जाता है, वैसे ही आर्या भी थोड़े से वस्त्र आदि के
तो णं कधेस्सामो तहा गुरूणं॥ दान से प्रलुब्ध हो जाती है। अथवा वस्त्र मंत्र आदि के ४१६२.सागारऽकडे लहुगो, बल से आभियोगिक वशीकरण योग्य किया गया हो, उस
गुरुगो पुण होति चिंधऽकरणम्मि। वस्त्र को लेने से वह आर्या उसके अभिमुख आकर्षित
गणिणीअसिढे लहुगा, हो जाती है। यहां पट्टक का दृष्टांत है। (देखें-गाथा २८१९)
गुरुगा पुण आयनीसाए।
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