________________
तीसरा उद्देशक
४१९ स्थिति में तथा अध्वानकल्प की स्थिति में इन स्थितियों में ४०८१.तिण्णेव य पच्छाया, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती। मात्रक में भक्त-पान लिया जा सकता है।
तत्तो य मत्तए खलु, चोद्दसमे कमढए होति॥ ४०७६.हरिए बीए चले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए। ४०८२.उग्गहणंतग पट्टो, अड्डोरुअ चलणिया य बोधव्वा।
पुढवी संपातिमा सामा, महावाए महियाऽमिते॥ अभिंतर-बाहिणियंसणी य तह कंचुए चेव॥ शकट हरित पर, बीज पर प्रतिष्ठित हो, चल हो, बैलों ४०८३.उक्कच्छिय वेकच्छिय, संघाडी चेव खंधकरणी य। से जुता हुआ हो, उसके एक बछड़ा बंधा हो, शकट के नीचे
ओहोवहिम्मि एते, अज्जाणं पण्णवीसं त॥ कुत्ता हो, शकट जल के ऊपर अथवा सचित्त पृथ्वीकाय पर आर्यिकाओं के पचीस प्रकार की उपधिस्थित हो, संपातिम जीवों का उपद्रव हो, रात हो, महावात १. पात्र
१४. कमढ़क चल रहा हो, महिका गिर रही हो-इस प्रकार की स्थिति में २. पात्रबंध
१५. अवग्रहानन्तक थोड़ा या अमित पात्र लेप का ग्रहण अनुज्ञात नहीं है।
३. पात्रस्थापन ४०७७.पुव्वण्हे लेवदाणं, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं। ४. पात्रकेसरिका
१७. अोरुक लेवस्स आणणा लिंपणा य जतणाय कायव्वा॥ ५. पटलिका
१८. चलनिका __ पूर्वाह्न में लेप लाने के लिए जाए। लेपग्रहण कर ६. रजस्त्राण
१९. अभ्यंतर निवसनी सुसंवररूप से लेप का आनयन करे और फिर यतनापूर्वक ७. गोच्छग
२०. बहिर्निवसनी लेप लगाए।
८,९,१०. तीन पच्छादक २१. कंचुक ११. रजोहरण
२२. औपकक्षिकी कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा
१२. मुखवस्त्रिका
२३. वैकक्षिकी
२४. संघाटी
१३. मात्रक भिन्नाइं वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए
२५. स्कंधकरणी वा॥
आर्यिकाओं की ये पचीस प्रकार की ओघ उपधि है। (सूत्र १०)
४०८४.नावनिभो उग्गहणंतओ उ सो गुज्झदेसरक्खट्ठा।
सो य पमाणेणेक्को, घण-मसिणो देहमासज्ज। ४०७८.अव्वोगडो उ भणितो, उवधिविभागो उ आदिसुत्तेसु। 'अवग्रह' यह स्त्री की योनि की सामयिकी संज्ञा है।
सो पुण विभज्जमाणो, उवरिसुए वोगडो होति॥ उसका अंतक अर्थात् वस्त्र अवग्रहान्तक कहलाता है। योनि आदिसूत्रों अर्थात् पूर्वसूत्रों में उपधि का विभाग का आकार नावा के सदृश होता है। उसकी रक्षा के लिए सामान्यतः निरूपित हुआ है। वह उपधि का विभाग प्रस्तुत अवग्रहान्तक किया जाता है। वह प्रमाण से एक, सघन और सूत्र में स्पष्टरूप में (विभाजित होकर) हुआ है, जैसे यह मुलायम वस्त्र से बनाया जाता है। स्त्री के देह के अनुसार उपधि-विभाग जिनकल्पी मुनियों का, यह स्थविरकल्पी उसका निर्माण होता है। मुनियों का, यह आर्यिकाओं का।
४०८५. पट्टो वि होइ एक्को, देहपमाणेण सो उ भइयव्वो। ४०७९.चोद्दसग पण्णवीसो, ओहोवधुवग्गहो अणेगविधो। छादंतोग्गहणतं, कडिबद्धो मल्लकच्छा वा॥
संथारपट्टमादी, उभयोपक्खम्मि णेयव्वो॥ पट्ट भी गणना से एक तथा शरीर के अनुसार होता है। उपधि के दो प्रकार हैं-औधिक उपधि और औपग्रहिक वह देह के अनुसार छोटा या बड़ा होता है। वह अवग्रहान्तक उपधि। जिनकल्पी मुनियों के औधिक उपधि ही होती है, के दोनों पार्यों से ढंकता हुआ, कटिबद्ध होकर मल्लकक्षा औपग्रहिक नहीं। स्थविरकल्पी मुनियों के दोनों प्रकार की की भांति होता है। उपधि होती है। मुनियों के चौदह प्रकार की और साध्वियों४०८६.अड्डोरुगो वि ते दो, वि गिव्हिडं छादए कडीभागं। के पचीस प्रकार की ओघ उपधि होती है। औपग्रहिक उपधि
जाणुप्पमाण चलणी, असिव्विया लंखियाए व॥ के अनेक प्रकार हैं, जैसे संस्तारक, पट्ट आदि। यह उभयपक्ष अोरुक भी दोनों-अवग्रहान्तक तथा पट्ट के ऊपर लेकर अर्थात् साधु-साध्वी दोनों के होती है।
सारे कटिभाग को आच्छादित करता है। चलनिका ४०८०.पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया। जानुप्रमाणवाली होती है। वह नटिनी के परिधान की भांति
पडलाइं रयत्ताणं, च गोच्छओ पायनिज्जोगो॥ बिना सिलाई की होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org