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=बृहत्कल्पभाष्यम्
शैक्ष आदि मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकते हैं। यदि आचार्य के ४०७१.पडणं अवंगुतम्मि, पुढवी-तसपाण-तरुगणादीणं । लिए पात्रक में ग्रहण करते हैं तो आत्मपरित्याग होता है।
आणिज्जंते गामंतरातो गलणे य छक्काया। यदि स्वयं के लिए ग्रहण करता है तो आचार्य आदि के लिए छोटा पात्र पूरा भरा हुआ हो और खुला हो तो उसमें नहीं लिया जाता, वे परित्यक्त हो जाते हैं। यदि संसक्त- पृथ्वी की रजें, त्रसप्राणी तथा वृक्षों के पत्ते आदि गिर सकते भक्तपान ग्रहण करते हैं तो संयमदोष विस्तार के साथ हैं। अथवा ग्रामान्तर से वैसा भरा हुआ पात्र लाने पर उसमें (गा. ४६१, ७८२, २७७१ आदि) लगते हैं।
से गलित होते द्रव्य से छहकाय की विराधना होती है। ४०६६.वारत्तग पव्वज्जा, पुत्तो तप्पडिम देवथलि साहू। ४०७२.अहियस्स इमे दोसा, एगतरस्सोग्गहम्मि भरितम्मि। पडियरणेगपडिग्गह, आयमणुव्वालणा छेओ।।
सहसा मत्तगभरणे, भारादि, विगिंचणियमादी॥ वारत्तग नगर के राजा अभयसेन का अमात्य वारत्तग प्रमाण से बड़े पात्र के ये दोष हैं-भक्त अथवा पानक से प्रत्येक बुद्ध था। वह प्रव्रजित हो गया। उसके पुत्र ने उसकी उसको भर लेने पर, दूसरे मात्रक में अन्यद् ग्रहण करता प्रतिमा बनवा कर एक देवकुल में स्थापित कर दी। वह । है। उस मात्रक को सहसा भर लेने पर, दोनों के भार के स्थली प्रवर्तित हो गई। एक साधु एक पात्र से वहां भिक्षा के कारण मुनि स्थाणु, कंटक आदि को बचाने में समर्थ नहीं लिए आया। उस पात्र में भिक्षा लेकर, भोजन कर, उसी में होता, उससे आत्मविराधना होती है और ईर्या का सम्यग् पानी लेकर स्थंडिल में गया। संज्ञा का व्युत्सर्जन कर, शुचि शोधन न कर सकने के कारण संयमविराधना भी होती है। लेकर आया। लोगों ने देख लिया। उन्होंने उसकी पात्रों को अत्यधिक भर लेने के कारण परिष्ठापन करना उद्वालना-निष्काशना कर दी तथा अन्य साधुओं का भी होता है। न करने पर, अत्यधिक भक्षण से ग्लानत्व हो व्यवच्छेद कर डाला। अतः मात्रक के ग्रहण के बिना ये दोष सकता है। होते हैं।
४०७३.जइ भोयणमावहती, दिवसेणं तत्तिया चउम्मासा। ४०६७.जो मागहओ पत्थो, सविसेसतरं तु मत्तगपमाणं।
दिवसे दिवसे तस्स उ, बितिएणारोवणा भणिया॥ दोसु वि दव्वग्गहणं, वासावासासु अहिकारो॥ मुनि एक दिन में जितनी बार मात्रक में भक्त-पान लाता है मगध देश के प्रस्थ से सविशेषतर प्रमाणवाला होता है उतने ही चतुर्लघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रतिदिन मात्रक। उस मात्रक से दोनों कालों वर्षावास और ऋतुबद्ध में मात्रक में लाता है, खाता है तो आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त भक्त-पान लिया जा सकता है। वर्षावास में मात्रक का विशेष होता है, जैसे-दूसरे दिन जितनी बार मात्रक में खाता है अधिकार है।
उतने चतुर्गुरु, तीसरे दिन षड्लघु, चौथे दिन षड्गुरु, पांचवें ४०६८.सुक्खोल्लओदणस्सा, दुगाउतद्धाणमागओ साहू।। दिन छेद, छठे दिन मूल, सातवें दिन अनवस्थाप्य और आठवें
भुंजति एगट्ठाणे, एतं खलु मत्तगपमाणं॥ दिन पारांचिक। एक पात्र में शुष्क ओदन है और दूसरे पात्र में तीमन। ४०७४.अण्णाणे गारवे लुद्धे, असंपत्ती य जाणए। उस तीमन से ओदन आर्द्र है। दो गव्युति से समायात साधु
लहुगो लहुगा गुरुगा, चउत्थो सुद्धो उ जाणओ॥ उसे खा लेता है। इसे मात्रक का प्रमाण जानना चाहिए।
अज्ञानवश हीनाधिक प्रमाण वाला मात्रक धारण करने पर ४०६९.भत्तस्स व पाणस्स व, एगतरागस्स जो भवे भरिओ। लघुमास, गौरव के कारण धारण करने पर चतुर्लघु, लोभवश
पज्जत्तो साहुस्स उ, बितियं पि य मत्तयपमाणं॥ करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। मात्रक की भक्त या पानक अथवा इन दोनों में से एक से भरा पात्र असंप्राप्ति के कारण हीनाधिक प्रमाण वाला मात्रक धारण एक साधु के लिए पर्याप्त होता है। यह दूसरे प्रकार से मात्रक करने वाला शुद्ध है। मात्रक के लक्षणों का ज्ञायक यदि का प्रमाण है।
हीनाधिक प्रमाण वाला मात्रक धारण करता है तो वह भी ४०७०.डहरस्सेमे दोसा, ओभावण खिंसणा गलंते य।।
छण्हं विराहणा भाणभेदो जं वा गिलाणस्स॥ ४०७५.बाले वुड्ढे सेहे, आयरिय गिलाण खमग पाहुणए। छोटे प्रमाण वाले मात्रक के ये दोष हैं। अपभ्राजना, दुल्लभ संसत्त असंथरंत अद्धाणकप्पम्मि।। खिंसना तथा उससे द्रव्य के नीचे गिरने से छह काय की बाल, वृद्ध, शैक्ष, आचार्य, ग्लान, क्षपक, तथा प्राघूणकविराधना होती है। भाजन का भेद हो सकता है तथा छोटे ये मात्रक में परिभोग कर सकते हैं। दुर्लभ द्रव्य, भक्त-पान पात्र में लिया गया द्रव्य ग्लान के लिए अपर्याप्त होता है। जिस पात्र में संसक्त हो, वैसी स्थिति में, असंस्तरण की
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