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तीसरा उद्देशक
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है। जैसे सास्यिक कृषक के लिए सस्यविषयक परिकर्म हित राग आदि परिणामों की तीव्रता, मंदता, ज्ञात-अज्ञात, के लिए होता है, वैसे ही साधु के लिए भांडपरिकर्म हितकारी भावाधिकरण, वीर्य-इन में जो नानात्व होता है, वैसे ही होता है।
कर्मबंध में नानात्व होता है, ऐसा जानो। (व्याख्या आगे) ३९३२.अप्पेव सिद्धंतमजाणमाणो,
३९३७.तिव्वेहि होति तिव्वो, रागादीएहिं उवचओ कम्मे। तं हिंसगं भाससि जोगवंतं। मंदेहि होति मंदो, मज्झिमपरिणामतो मज्झो। दव्वेण भावेण य संविभत्ता,
राग आदि की तीव्रता होने पर तीव्र कर्मबंध का उपचय चत्तारि भंगा खलु हिंसगत्ते॥ होता है, मंद होने पर मंद और मध्यम होने पर मध्यम इस प्रकार तुम योगवान्-प्रवृत्ति करने वाले को हिंसक कर्मबंध होता है। मानते हो, इसका तात्पर्य है कि तुम सिद्धांत को नहीं जानते। ३९३८.जाणं करेति एक्को. हिंसमजाणमपरो अविरतो य। द्रव्य और भाव से विभक्त चार भंग हिंसकत्व में होते हैं
तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए। १. द्रव्य से हिंसा, भावतः नहीं
एक व्यक्ति जानकर हिंसा करता है और दूसरा २. भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं
अजानकारी में हिंसा करता है। दोनों अविरत हैं, फिर भी उन ३. द्रव्यतः और भावतः हिंसा
दोनों के कर्मबंध में महान् अन्तर है, ऐसा सिद्धांत में कहा है। ४. न द्रव्यतः हिंसा और न भावतः हिंसा।
३९३९.विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा। ३९३३.आहच्च हिंसा समितस्स जा तू,
तत्थ वि अज्झत्थसमा, संजायति णिज्जरा ण चयो॥ . सा दव्वतो होति ण भावतो उ। जो विरत है-संयत है, वह गीतार्थ मुनि विशेष प्रयोजनभावेण हिंसा तु असंजतस्सा,
वश जानता हुआ भी हिंसा करता है अथवा वह अप्रमत्त है जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति॥ और कदाचित् अजानकारी में प्राणव्यपरोपण हो जाता है, ३९३४.संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा,
वहां भी अध्यात्मसभा-चित्तप्रणिधान के आधार पर निर्जरा सा दव्वहिंसा खलु भावतो य।। होती है, कर्मबंध नहीं होता। अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा,
३९४०.एगो खओवसमिए, वट्टति भावेऽवरो उ ओदइए। वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा॥ तत्थ वि बंधविसेसो, संजायति भावणाणत्ता॥ समित अर्थात् ईर्यासमिति में उपयुक्त मुनि के कदाचित् एक क्षायोपशमिक भाव में वर्तन कर रहा है और दूसरा हिंसा हो जाती है, वह द्रव्यतः हिंसा है, भावतः नहीं। द्रव्यतः औदयिक भाव में, वहां भी भावों के नानात्व के कारण हिंसा नहीं, किन्तु भावतः हिंसा असंयत व्यक्ति के तथा कर्मबंध भी विशेष होता है। अनुपयुक्त संयत के होती है, यद्यपि सदा वह उन सत्वों को ३९४१.एमेव ओवसमिए, खओवसमिए तहेव खइए य। नहीं मारता फिर भी उनका वह हिंसक है। जब उन जीवों का
बंधा-ऽबंधविसेसो, ण तुल्लबंधा य जे बंधी॥ प्राणव्यपरोपण करता है तब वह द्रव्य हिंसा तथा भावहिंसा- इसी प्रकार औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव दोनों है। जो अध्यात्मशुद्ध है अर्थात् जिसका चित्तप्रणिधान में बंध-अबंध विशेष का सम्यग् उपयोग वक्तव्य है। जो शुद्ध है, उसका जब वध के साथ योग नहीं होता तो वह द्रव्य कर्मबंधक जीव हैं, वे भी तुल्यबंधक नहीं होते। और भाव दोनों से अहिंसक है।
३९४२.अहिकरणं पुव्वुत्तं, चउव्विहं तं समासओ दुविहं। ३९३५.रागो य दोसो य तहेव मोहो,
णिव्वत्तणताए वा, संजोगे चेवऽणेगविधं ॥ ते बंधहेतू तु तओ वि जाणे। अधिकरण के चार प्रकार पहले (प्रथमोद्देशक में) कहे जा णाणत्तगं तेसि जधा य होति,
चुके हैं। वे ये हैं-निर्वर्तना, निक्षेपणा, संयोजना और
निसर्जना। संक्षेप में अधिकरण के दो प्रकार हैं-निर्वर्तना में राग, द्वेष और मोह-ये तीनों बंध के हेतु हैं, यह तुम तथा संयोजना में। इनके अनेक प्रकार हैं। जानो। जब ये तीनों विशेष होते हैं तब कर्म-बंध भी विशेष ____३९४३.एगो करेति परसुं, णिव्वत्तेति णखछेदणं अवरो। होता है, यह जानो।
कुंत-कणगे य वेज्झे, आरिय सूई अ अवरो उ॥ ३९३६.तिव्वे मंदे णातमणाए भावाधिकरण विरिए य। एक लोहकार पशु-कुठार का निर्माण करता है और
जह दीसति णाणत्तं, तह जाणसु कम्मबंधे वि॥ दूसरा नखच्छेदनक बनाता है। एक लोहकार भाला और
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