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द्रव्य अर्थात् वस्त्र का प्रमाण दो प्रकार से होता है-गणना से तथा प्रमाण से । अतिरिक्त और हीन वस्त्र, परिकर्म, विभूषणा, मूर्च्छा जिनकल्प तथा स्थविरकल्प मुनियों की उपधि का प्रमाण यथाक्रम में कहूंगा (व्याख्या आगे) ३९६२. पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया । पदलाई रहताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ ३९६३.तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती । एसो दुवालसविहो, उबही जिणकप्पियाणं तु ॥ जिनकल्पिक मुनियों के बारह प्रकार की उपाधि इस प्रकार है- (१) पात्र (२) पात्रबंध (३) पात्रस्थापन - वह कंबल का टुकड़ा जिस पर पात्र रखे जाएं (४) पात्र केसरिका (पात्र प्रत्युपेक्षण का वस्त्र) (५) पटलिका - भिक्षाचर्या में पात्र को ढंकने का वस्त्र (६) रजस्त्राण पात्रवेष्टन (७) गोच्छक पात्र को ढंकने का कंबलमय वस्त्र यह सात प्रकार का पात्रपरिकर अर्थात् उपकरणकलाप है। (८,९,१०) तीन प्रच्छादक-दो सौत्रिक और एक ऊर्णामय (११) रजोहरण (१२) मुखपोतिका । १
३९६४. एए चेव दुवालस, मत्तग अइरेग चोलपट्टो य । एसो उ चउदसविहो, उवही पुण थेरकप्पम्मि ॥ स्थविरकल्प मुनियों के ये उपरोक्त बारह उपधि तथा एक मात्रक अतिरिक्त तथा एक चोलपक- यह चौदह प्रकार की उपधि होती है। ३९६५. जिणा
,
बारसरूवाई, थेरा
चउदसरूविणो । ओहेण उवहिमिच्छंति, अओ उ उवग्गहो ॥ जिनकल्पी मुनि उपकरणों के बारह रूप धारण करते हैं और स्थविरकल्पी मुनि उपकरणों के चौदह रूप धारण करते हैं ओघ से यह उपधि है इससे अतिरिक्त उपग्रह उपधि कहलाती है, जैसे-दंडक, चिलिमिलि आदि । ३९६६.चत्तारि य उक्कोसा, मज्झिमग जहन्नगा वि चत्तारि । कप्पाणं तु पमाणं, संडासो दो य रयणीओ ॥ जिनकल्पिकों का चार उपकरण उत्कृष्ट होते हैं-तीन कल्प और एक प्रतिग्रह । मध्यम उपकरण भी चार हैं-पटलक, रजस्त्राण, रजोहरण और पात्रकबंध तथा जघन्य १. जिनकल्पी मुनि दो प्रकार के होते हैं-पाणिपात्र और प्रतिग्रहधारक । ये दोनों दो-दो प्रकार के हैं-अप्रावरण और सप्रावरण। जो अप्रावरण पाणिपात्र होते हैं उनके दो प्रकार की उपधि होती है-रजोहरण और मुखपोतिका । सप्रावरण मुनियों के लिए तीन, चार या पांच प्रकार की उपधि होती है। तीन उपधि (१) रजोहरण (२) मुखपोतिका (३) एक सौत्रिक कल्प । चार उपधि-उपरोक्त तीन के साथ चौथा और और्णिक कल्प। पांच उपधि-उपरोक्त चार तथा एक और सौत्रिक कल्प | जो प्रावरणरहित प्रतिग्रहधारी के नौ प्रकार की उपधि
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बृहत्कल्पभाष्यम्
उपकरण भी चार हैं - मुखवस्त्रिका, पात्रकेसरिका, पात्रस्थापन तथा गोच्च्छक उनके कल्पों का प्रमाण यह है-दो हाथ लंबा और डेढ़ हाथ चौड़ा।
३९६७. अन्नो विय आएसो, संडासो सत्थिए णुवन्ने य जं खंडियं दढं तं, छम्मासे दुब्बलं इयरं ॥ एक दूसरा आदेश भी है- संदंशक और स्वस्तिक । एक जिनकल्पी मुनि उत्कटुक आसन में बैठे हैं। उनके घुटने से प्रारंभ कर पुत और पृष्ठभाग को आच्छादित करते हुए कन्धे पर जितना वस्त्र आ सके, यह उनके कल्प की लंबाई है। यह संदेशक कहलाता है। उसी कल्प के दोनों छोरों को पकड़ कर दोनों भुजाओं और सिर तक जितना वस्त्र आता है, उसको स्वस्तिक कहते हैं। दांए हाथ से बांया भुजशीर्ष और बांए हाथ से दाहिना भुजशीर्ष, इस प्रकार दोनों कलाचिकाओं (कलाईयों) का हृदय पर जो विन्यास होता है, वह स्वस्तिकाकार होता है, इसलिए इसे स्वस्तिक कहा जाता है यह चौडाई का प्रमाण है।
'णुवन्न' - इसका अर्थ है निपन्न अर्थात् सोया हुआ । इन स्थविरकल्पिक मुनियों के भी दो आदेश हैं ( ३९६९) । जिनकल्पिक मुनि जो वस्त्र खंडित हो गया है, फिर भी यदि वह दृढ़ है और छह मास तक काम में आ सकता है तो ये उसे ग्रहण करते हैं, जो ऐसा न हो, दुर्बल हो तो वे उसे ग्रहण नहीं करते।
३९६८.संडासछिड्डेण हिमादि एति,
गुत्ता वडगुत्ता विय तस्स सेज्जा । हत्थेहि सो सोत्यिकडेहि घेतुं,
वत्थस्स कोणे सुवई व झाती ॥ जिनकल्पी मुनि की शय्या गुप्त धनकुड्य-कपाटयुक्त अथवा अगुप्त होती है। संवंशक के छिद्र से ठंडी हवा आदि का प्रवेश होता है। उसकी रक्षा के लिए मुनि स्वस्तिकाकार मैं निवेशित दोनों हाथों से वस्त्र के दोनों कोणों को पकड़कर उत्कटुक आसन में सो जाता है या ध्यान करता है। ३९६९. कप्पा आयपमाणा, अड्डाइज्जा उ वित्थडा हत्था ।
एवं मज्झिम माणं, उक्कोसं होंति चत्तारि ॥ होती हे पात्र, पाकबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटलक, रजस्त्राण, गोच्छक, रजोहरण और मुखपोतिका । जो प्रावरणसहित हैं उनके ये नौ उपधि, इनमें एक कल्प प्रेक्षप करें तो दस, दो कल्प के प्रक्षेप से ग्यारह, कल्पत्रय का प्रक्षेप करें तो बारह-यह बारह प्रकार की उत्कृष्ट उपधि है जिनकल्पिक मुनियों की । अन्यान्य गच्छनिर्गत मुनियों की उपधि का भी यही परिमाण है।
२. कुछ आचार्य कहते हैं कि वह जिनकल्पी मुनि उत्कटुक आसन में ही रात्री के तीसरे प्रहर में क्षणमात्र के लिए सोता है। (वृ. पृ. १०८९)
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