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वत्थ-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणारं वत्थाइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा।
(सूत्र ७) कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई वत्थाई धारित वा
परिहरित्तए वा ॥
( सत्र ८ )
३८७९. पडिसिद्धं खलु कसिणं,
अववादियं तु चम्मं,
ण वत्थमिति जोगणाणत्तं ॥ पूर्वसूत्र में कृत्स्नचर्म का प्रतिषेध किया गया है वैसे ही वस्त्रकृत्स्न भी हमें ग्राह्य नहीं है। जैसे चर्म आपवादिक है, वैसे वस्त्र आपवादिक नहीं है, क्योंकि यह सदा परिभोग में आता है। यही संबंध का नानात्व प्रकारान्तर है। ३८८०. कसिणस्स उ वत्थस्सा,
णिक्खेवो छव्विहो तु कातव्वो ।
नामं ठवणा दविए,
खेत्ते काले य भावे य ॥ कृत्स्न वस्त्र के छह निक्षेप होते हैं-नामकृत्स्न, स्थापनाकृत्स्न, द्रव्यकृत्स्न, क्षेत्रकृत्स्न, कालकृत्स्न और भावकृत्स्न । ३८८१. दुविहं तु दव्वकसिणं, सकलक्कसिणं पमाणकसिणं च ।
एतेसिं दोन्हं पी, पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ द्रव्यकृत्स्न के दो प्रकार हैं-सकलकृत्स्न और प्रमाणकृत्स्न। इन दोनों में प्रत्येक की पृथक् प्ररूपणा करूंगा । ३८८२. घण मसिणं णिरुवहयं, जं वत्थं लब्भते सदसियागं ।
एतं तु सकलकसिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कोसं ॥ सघन, मृदु, निरुपहत तथा सदशाक - किनारी वाला जो वस्त्र प्राप्त होता है वह सकलकृत्स्न कहलाता है। उसके तीन प्रकार हैं- जघन्य मुखपोतिका आदि, मध्यम-पटलक और उत्कृष्ट - कल्प आदि । ३८८३.वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भए समतिरेगं । एयं पमाणकसिणं, जहणणयं मज्झिमुक्कोसं ॥ जो वस्त्र विस्तार- चौड़ाई और आयाम - लंबाई में समतिरिक्त प्राप्त होता है, वह प्रमाणकृत्स्न है । उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - ये तीन प्रकार हैं।
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चम्मं वत्थकसिणं पि णेच्छाभो ।
बृहत्कल्पभाष्यम्
३८८४. जं वत्थ जम्मि देसम्मि दुल्लहं अच्चियं व जं जत्थ । तं खित्तजुयं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ जो वस्त्र जिस देश में दुर्लभ हो, जो वस्त्र जहां अर्चित अर्थात् मंहगा हो वह क्षेत्रयुतकृत्स्न कहलाता है। उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-ये तीन प्रकार हैं। ३८८५.जं वत्थ जम्मि कालम्मि अग्घितं दुल्लभं व जं जत्थ ।
तं कालजुतं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ जो वस्त्र जिस काल में बहुमूल्य वाला है और जो जहां दुर्लभ है, वह कालयुतकृत्स्न है। उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - ये तीन प्रकार हैं। ३८८६.दुविहं च भावकसिणं, वण्णजुतं चेव होति मोल्लजुयं । वण्णजुयं पंचविहं, तिविहं पुण होइ मोल्लजुतं ॥ भावकृत्स्न के दो प्रकार हैं- वर्णयुत और मूल्ययुत । वर्णयुत के पांच और मूल्ययुत के तीन प्रकार हैं। ३८८७. पंचन्हं वण्णाणं, अण्णतराएण जं तु वण्णङ्कं ।
तं वण्णजुयं कसिणं जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ पांचों वर्णों में जो वर्ण आढ्य- समृद्ध होता है वह वर्णयुतकृत्स्न कहलाता है। वह भी तीन प्रकार का है - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ।
३८८८. चाउम्मासुक्कोसे, मासो मज्झे य पंच य जहण्णे । तिविहम्मि वि वत्थम्मिं, तिविधा आरोवणा भणिया ॥
उत्कृष्ट कृत्स्न में चतुर्लघु, मध्यम में लघुमास और जघन्य में पांच रात-दिन इस प्रकार तीनों प्रकार के कृत्स्न वस्त्र में तीन प्रकार की आरोपणा होती है। ३८८९.दव्वाइतिविहकसिणे, एसा आरोवणा भवे तिविहा ।
एसेव वण्णकसिणे, चउरो लहुगा व तिविधे वि ॥ यह तीन प्रकार की आरोपणा द्रव्य आदि तीन प्रकार के कृत्स्न- द्रव्यकृत्स्न, क्षेत्रकृत्स्न, और कालकृत्स्न में होती है। यही वर्णकृत्स्न में होती है। अथवा वर्णकृत्स्न के जघन्य आदि तीनों भेद में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है।
३८९०. मुल्यं पय तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं ।
जहणणेणऽट्ठारसगं, सतसाहस्सं च उक्कोसं ॥ मूल्ययुत भी तीन प्रकार का है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । अठारह रूपक मूल्य वाला जघन्य, एक लाख रूपक मूल्य वाला उत्कृष्ट और इनके बीच का मूल्य वाला मध्यम है।
३८९९. दो साभरगा दीविच्चगा तु सो उत्तरापथे एक्को ।
दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ॥ सौराष्ट्र के दक्षिण दिशा में समुद्र का अवगाहन कर जो द्वीप है, वहां के दो 'साभरक' (रूपक) उत्तरापथ में एक
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