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- बृहत्कल्पभाष्यम् देखता है वैसे ही जीवों को भी देखता है, उनका घात नहीं ३८६४.अरिसिल्लस्स व अरिसा, करता। जो व्यक्ति यह सोचता है कि मैं जूते पहने हुए हूं, वह
___मा खुब्भे तेण बंधते कमणी। निरपेक्ष होकर न कांटों को देखता है और न जीवों को।
असहुमवंताहरणं, ३८५९.पुट्विं अदया भूएसु होति बंधति कमेसु तो कमणी।
पादो घट्टो तु गिरिदेसे॥ जायति हु तदब्भासा, सुदयालुस्सावि णिहयया॥ अर्श का रोगी यह सोचता है कि पादतल की दुर्बलता जो व्यक्ति पहले ही प्राणियों के प्रति निर्दय होता है, वह के कारण अर्श क्षुब्ध न हो जाएं इसलिए वह पैरों में पैरों में जूते बांध लेने के बाद, उसके अभ्यास से वह क्रमणिका बांधता है। क्रमणिका के बिना न चल सकने सदयालु होने पर भी निर्दय हो जाता है।
वाला असहिष्णु क्रमणिका का प्रयोग करता है। इसमें ३८६०.अवि यंउंबखुज्जपादेण पेल्लितो अंतरंगुलगतो वा। अवंतीसुकुमार का उदाहरण ज्ञातव्य है।' गिरिदेश में
मुच्चेज्ज कुलिंगादी, ण य कमणीपेल्लितो जियती॥ विहरण करने वाले मुनि के पादतल घिस जाएं तो वह जैसे आम्रकुब्ज व्यक्ति के पैरों के नीचे आया हुआ क्रमणिका बांध सकता है। कुलिंगी-विकलेन्द्रिय प्राणी, उसके अंगुलियों के मध्य में ३८६५.कुट्ठिस्स सक्करादीहि वा वि भिण्णो कमो मधूला वा। आया हुआ भी, मरता नहीं, बच जाता है, किन्तु क्रमणिका बालो असंफरो पुण, अज्जा विहि दोच्च पासादी। से आक्रान्त जीव बच नहीं सकता, अवश्य मर जाता है। जिस कुष्ठरोगी के पैर कंकड़, कांटें आदि से फट गए ३८६१.किह भूयाणुवघातो, ण होहिती पगतिपेलवतणूणं। हों वह क्रमणिका बांधता है। जिसके मधूल-पैरों में फोड़ा
सभराहि पेल्लियाणं, कक्खडफासाहिं कमणीहिं॥ हो गया हो वह अथवा असंवृत (असंस्फर) बाल तथा आर्या प्राणी स्वभाव से ही अदृढ़शरीर वाले होते हैं। पुरुष के को जिस मार्ग से ले जाना हो वहां चोर आदि का भय हो, भार से आक्रान्त, कर्कशस्पर्शवाले जूतों से प्रेरित होने पर वहां वृषभ मुनि क्रमणिका पहनकर मार्ग को छोड़कर वहां भूतोपधात कैसे नहीं होगा?
पार्श्वस्थित अर्थात् उत्पथ से चलते हैं। सभी उस उत्पथ से ३८६२.विह अतराऽसहु संभम,
जाते हैं। कोट्ठाऽरिस चक्खुदुब्बले बाले। ३८६६.कुलमाइकज्ज दंडिय, पासादी तुरियधावणट्ठा वा। अज्जा कारणजाते,
कारणजाते वऽण्णे, सागारमसागरे जतणा॥ कसिणग्गहणं अणुण्णायं॥ कुल, गण, संघ आदि के कार्य में दंडिकावलगन के लिए इन कारणों से कृत्स्नचर्म का ग्रहण अनुज्ञात है-विह त्वरित गमन के लिए, अथवा उत्पथ में या आगे-पीछे चलते अर्थात् यात्रा में, ग्लान के लिए, असहिष्णु के लिए, हुए अथवा शीघ्रता से दौड़ने के लिए, कारण उपस्थित होने संभ्रम-चोर आदि के भय में, यदि कुष्ठरोगी, अर्शरोगी, पर या किसी अन्य आगाढ़ कारण में सागारिक तथा आंख से दुर्बल हो, बाल हो, कारणवश आर्या को ले जाना असागारिक विषय की यतना रखते हुए क्रमणिका का पड़े, कुल-गण-संघ का कार्य उपस्थित होने पर।
उपयोग करे। (यदि सागारिक उड्डाह करते हों तो क्रमणिका ३८६३.कंटा-हि-सीयरक्खट्ठता विहे खवुसमादि जा गहणं।। निकाल कर गांव में प्रवेश करे।)
ओसहपाण गिलाणे, अहुणुट्ठियभेसयट्ठा वा॥ ३८६७.पंचविहम्मि विकसिणे, मार्ग में चलते समय कंटक, सर्प और शीत की रक्षा के
किण्हग्गहणं तु पढमतो कुज्जा। लिए अंगुलीरक्षक अथवा खल्लक आदि का ग्रहण होता है। किण्हम्मि असंतम्मि, इसी प्रकार खपुस, अर्धजंघा, समस्तजंघा का भी ग्रहण
विवण्णकसिणं तहिं कुज्जा। किया जाता है। औषधपान आदि सेवन करने वाला ग्लान वैद्य पांच प्रकार के वर्णकृत्स्न चर्म में सबसे पहले कृष्ण वर्ण के उपदेश से बिना क्रमणिका के नहीं चल सकता, अथवा वाले कृत्स्न चर्म को ग्रहण करे। यदि कृष्णवर्णवाले कृत्स्नचर्म ग्लानत्व से तत्काल उठा हुआ ग्लान क्रमणिका का उपयोग की अप्राप्ति हो तो लोहित आदि वर्णकृत्स्न आदि चर्म ग्रहण करता है, अन्यथा पृथ्वी की शीतलता के कारण अन्न ___करे। उसे विवर्णकृत्स्न कर दे। उचितरूप में नहीं पचता। अथवा भैषज के लिए ग्रामान्तर ३८६८.किण्हं पि गेण्हमाणो, झुसिरग्गहणं तु वज्जए साहू। जाना पड़े तो ग्लान क्रमणिका का प्रयोग करता है।
बहुबंधणकसिणं पुण, वज्जेयव्वं पयत्तेणं। १. कथानक के लिए देखें-आवश्यक, हारि. वृ. पृ. ६७०।
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