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बृहत्कल्पभाष्यम् मास, दूर-दर्शन में लघुमास, शंका में चतुर्लघु, निःशंकिता में जाने पर चतुर्लघु, मध्यभाग में एक पैर भी रखने पर चतुर्गुरु, आलाप में षट् लघुमास, कक्षान्तर आदि के चतुर्गुरु। शिष्य पूछता हैअवलोकन में षड्गुरु, स्मृतिकरण में छेद, प्रतिसेवना की ३६९३.पाणाइवायमादी, असेवतो केण होति गुरुगा उ। बात कहने पर मूल, स्वीकृति की अनवस्थाप्य और
कीस व बाहिं लहुगा, अंतो गुरु चोतग! सुणेहिं॥ प्रतिसेवना में पारांचिक।
भंते! प्राणातिपात आदि का सेवन न करने पर भी ३६८७.निक्कारणगमणम्मि, बहवे दोसा य पच्चवाता य। चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त क्यों होता है? द्वारमूल में स्थित के
जिण-थेरपडिक्कुट्ठा, तेसिं चाऽऽरोवणा इणमो॥ चतुर्लघु और अंतःप्रविष्ट के चतुर्गुरु क्यों? आचार्य कहते आर्या के उपाश्रय में निष्कारण गमन करने में अनेक हैं-शिष्य! सुनो। दोष और प्रत्यपाय हैं। जिनेश्वर ने और स्थविरों ने ३६९४.वीसत्था य गिलाणा, इसका प्रतिषेध किया है। इन दोषों की यह आरोपणा
खमिय वियारे य भिक्ख सज्झाए। प्रायश्चित्त है।
पालीय होइ भेदो, ३६८८.चिट्ठित्त णिसीइत्ता, तुयट्ट णिद्दा य पयल सज्झाए।
अप्पाण परे तदुभए य॥ झाणा-ऽऽहार-विहारे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ कोई आर्या वहां विश्वस्त अर्थात् अपावृत बैठी हो, अथवा आर्या के उपाश्रय में खड़े रहना, बैठना, विश्राम करना, कोई ग्लान या तपस्विनी साध्वी बैठी हो, विचारभूमी या निद्रा लेना, प्रचला लेना, स्वाध्याय-ध्यान करना, आहार भिक्षाचर्या के लिए या स्वाध्यायभूमी में प्रस्थित हों तो उनके करना, विहार करना या उच्चार-प्रस्रवण करना कायोत्सर्ग व्याघात होता है। साध्वी के पाली अर्थात् मर्यादा (अथवा करना नहीं कल्पता। ये सब करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा वसतिपालिका) का भेद होता है। वह भेद आत्मसमुत्थ, होती है।
परसमुत्थ और उभयसमुत्थ हो सकता है। ३६८९.एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणा विभागो य।। ३६९५.काई सुहवीसत्था, दरजिमिय अवाउडा य पयजाति। जो एत्थं आवण्णोऽणावण्णो वा वि जो एत्थं॥
अतिगतमेत्ते य तहिं, संकिय पपलाइया थद्धा ।। इन पदों में प्रत्येक की प्ररूपणा और विभाग करना अपने उपाश्रय में कोई आर्या अपावृत होकर सुखपूर्वक चाहिए। जो इन पदों के दोषों को प्राप्त है या नहीं उसका बैठी है। कोई आधा भोजन कर बैठी है। कोई अपावृत होकर कथन करना चाहिए।
बैठी-बैठी नींद ले रही है। संयत के अकस्मात् प्रवेश करने ३६९०.निक्कारणमविहीए, निक्कारणओ तहेव य विहीए। मात्र से वह आर्या सोचती है इस संयत ने मुझे अपावृत देख
कारणओ अविहीए, कारणतो चेव य विहीए॥ लिया है-इस शंकामात्र से वह वहां से पलायन कर जाती है ३६९१.आदिभयणाण तिण्हं, अण्णतरीए उ संजतीसेज्जं। और स्तब्ध हो जाती है।
जे भिक्खू पविसेज्जा, सो पावति आणमादीणि॥ ३६९६.वीरल्लसउणवित्तासियं जहा सउणिवंदयं वुण्णं। आर्या के प्रतिश्रय में प्रवेश के चार विकल्प हैं
वच्चति णिरावयक्खं, दिसि-विदिसाओ विभज्जंतं ।। १. निष्कारण अविधि से।
३६९७.तम्मि य अतिगतमित्ते, वित्तत्थाओ जहेव ता सउणी। २. निष्कारण विधिपूर्वक।
गेण्हति य संघाडिं, रयहरणे यावि मग्गंति। ३. कारण में अविधि से।
जैसे बाज पक्षी से अत्यंत त्रस्त होकर पक्षियों का समूह ४. कारण में विधिपूर्वक।
विषण्ण होकर, अपने शावकों से निरपेक्ष होकर, दिशाओं प्रथम तीन विकल्पों में से किसी भी विकल्प में आर्या के और विदिशाओं में विभक्त होकर पलायन कर जाते हैं, दशों प्रतिश्रय में जो भिक्षु प्रवेश करता है वह आज्ञाभंग आदि। दिशाओं में उड़ जाते हैं। उसी प्रकार उस आर्या-वसति में दोषों को प्राप्त होता है।
संयत के अकस्मात् आने मात्र से साध्वीवृन्द भी त्रस्त होकर ३६९२.निक्कारणम्मि गुरुगा, तीसु वि ठाणेसु मासियं गुरुगं। इधर-उधर चला जाता है। कोई आर्या अपनी संघाटी को
लहुगा य दारमूले, अतिगयमेत्ते गुरू पुच्छा॥ संभालती है, कोई रजोहरण की मार्गणा करती है, ढूंढती है। आर्या की वसति में निष्कारण जाने पर चतुर्गुरुक, तीनों ३६९८.छक्कायाण विराहण, पक्खुलणं खाणु कंटए विलिया। स्थानों में अविधि से प्रवेश करने पर गुरुमास। तीन स्थान ये थद्धा य पेच्छिउं भावभेओ दोसा उ वीसत्थे। हैं-अग्रद्वार, मध्यभाग, निकटभाग। अग्रद्वार के समीप ठहर वस्त होकर इधर-उधर पलायन करने पर षट्काय की
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