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बृहत्कल्पभाष्यम्
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पत्नी का वियोग हो जाने पर प्रवजित हो गया। इस प्रकार दोनों में भावसंबंध हो गया। ३७०८.ओमाणस्स व दोसा, तस्स व गमणेण सग्गलोगस्स।
__ महतरियपभावेण य, लद्धा मे संजमे बोही॥ ३७०९.पदूमिता मि घरासे, तेण हतासेण तो ठिता धम्मे।
सिटुं दाइ रहस्सं, ण कहिज्जइ जं अणत्तस्स॥ आर्यिका कहती है-'सौत के कारण मेरा पति मुझे अपमान की दृष्टि से देखने लगा, इस दोष के कारण अथवा पति के स्वर्गगमन कर देने पर तथा महत्तरिका के प्रवचनों के प्रभाव से मुझे संयम में बोधि प्राप्त हुई। मैं दीक्षित हो गई। अथवा गृहवास में कुपति से बहुत अधिक क्लेश प्राप्त कर अन्त में मैं इस प्रकार धर्म में स्थित हुई हूं। मैंने यह रहस्य अभी आपके समक्ष प्रगट किया है। यह रहस्य किसी अनाप्त व्यक्ति के समक्ष नहीं कहा जा सकता।' ३७१०.रिक्खस्स वा वि दोसो,
अलक्खणो सा अभागधिज्जो णु। न य निग्गुणा मि अज्जो!,
तुब्भे वि य नाहिइ विसेसं॥ अथवा 'मेरे पाणिग्रहण के समय जो नक्षत्र था, उसका कोई दोष हो कि मुझे अलक्षणवाला तथा भाग्यहीन भर्त्ता मिला। आर्य! मैं निर्गुण नहीं हूं। आप मेरे विषय में विशेष जान पायेंगे।' ३७११.इट्ठकलत्तविओगे, अण्णम्मि य तारिसे अविज्जंते।
महतरयपभावेण य, अहमवि एमेव संबंधो॥ आर्यिका का यह कथन सुनकर मुनि बोला-'प्रिय पत्नी का वियोग हो जाने पर तथा दूसरी वैसी पत्नी की अविद्यमानता में, तथा महत्तर-आचार्य के धर्म प्रवचनों के प्रभाव से मैं भी प्रव्रजित हो गया।' इस प्रकार दोनों का परस्पर भाव-संबंध हो जाता है। ३७१२.किं पिच्छह सारिक्खं, मोहं मे णेति मज्झ वि तहेव।
उच्छंगगता मि मता, इहरा ण वि पत्तियंतो मि॥ मुनि संयती की ओर देखने लगा। आर्या ने कहा-'क्या देख रहे हैं ?' मुनि ने कहा-'मेरी पत्नी तुम्हारे सदृश थी, इसलिए तुम्हारे प्रति मोह हो रहा है।' आर्यिका बोली-'आपके प्रति भी इसी प्रकार मेरा मोह हो रहा है।' मुनि बोला-'मेरी पत्नी जब मेरे गोद में सो रही थी, तब उसकी मौत हो गई। इसलिए मैंने मान लिया कि वह मर गई, १. जब वह मुनि उस आर्या के साथ मैथुन की प्रतिसेवना करता है तो
उसके नरकायुष्क का बंध होता है, महती आशातना और बोधि की दुर्लभता होती है। कहा है
अन्यथा मैं कभी विश्वास नहीं कर पाता कि वह मर गई।' ३७१३.इय संदसण-संभासणेहिं भिन्नकध-विरहजोएहिं।
सेज्जातरादिपासण, वोच्छेद दुदिठ्ठधम्म ति॥ इस प्रकार परस्पर संदर्शन, मिलन, संभाषण, उसके साथ भिन्नकथा करना, एकान्तयोग होना-इन सबसे चारित्र का भंग होता है। शय्यातर अथवा अन्य लोग उसकी इन चेष्टाओं को देखकर द्रव्यों का व्यवच्छेद कर देते हैं और वे कहने लगते हैं ये साधु दुर्दृष्टधर्मा हैं। ३७१४.पयला निद्द तुअट्टे, अच्छिद्दिट्टम्मि चमढणे मूलं ।
पासवणे सच्चित्ते, संका वुच्छम्मि उड्डाहो।। प्रचला, निद्रा, त्वग्वर्तन, अक्षिचमढन, दृष्ट, मूल, प्रस्रवण, सच्चित्त संयती, शंका, व्युत्सर्जन, उड्डाह। यह अक्षरार्थ है। विस्तृत अर्थ आगे की गाथाओं में। ३७१५.पयला निद्द तुअट्टे, अच्छीणं चमढणम्मि चउगुरुगा।
दिद्वे वि य संकाए, गुरुगा सेसेसु वि पदेसु॥ प्रचला-बैठे-बैठे झपकी लेना, निद्रा-बैठे-बैठे सोना, त्ववर्तन-बिछौना बिछाकर सोना, अक्षिचमढन-संयती की आंख से आंख मिलना यदि मुनि ये सब क्रियाएं आर्यिका के उपाश्रय में करता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ये क्रियाएं किसी द्वारा देखे जाने पर शंका होती है। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। शेष सभी पदों-अशन, समुद्देशन आदि को देखने पर भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३७१६.सज्झाएण णु खिण्णो, आउं अण्णेण जेण पयलाति।
संकाए हुंति गुरुगा, मूलं पुण होति णिस्संके। यह शंका होती है क्या यह संयम स्वाध्याय से खिन्न है ? अथवा अन्य किसी प्रसंग से खिन्न होकर प्रचला आदि में रत है? शंका होने पर चतुर्गुरु तथा निःशंक का प्रायश्चित्त है मूल। ३७१७.अन्नत्थ मोय गुरुओ, संजतिवोसिरणभूमिए गुरुगा।
जोणोगाहण बीए, केयी धाराए मूलं तु॥ आर्यिकाओं की कायिकी भूमी को छोड़कर अन्यत्र मूत्र विसर्जित करने पर मासगुरु और आर्यिका की व्युत्सर्जनभूमी में मूत्र विसर्जित करने पर चतुर्गुरु। वहां शुक्र-बीज आर्यिका के प्रस्रवण की धारा से आहत होकर ऊर्ध्वमुखी होकर आर्यिका की योनि में प्रवेश कर जाता है। इसका प्रायश्चित्त है-मूल।
लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जइ निगच्छई मूढो। निरयाउयं निबंधइ, आसायणया अबोही य॥
(वृ. पृ. १०३०)
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