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तीसरा उद्देशक
निग्गंथिउवस्सय-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीणं उवस्सयंसि चिद्वित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवेत्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए॥
(सूत्र १)
३६७९.वत्थाणि एवमादीणि गणहरो गेण्हिउं सयं चेव।
वच्चति वतिणीवसहि, पवत्तिणीए पणामेउं॥ दूसरे उद्देशक के अंतिम में दो सूत्रों में कथित वस्त्र, जो निर्ग्रन्थी के प्रायोग्य हों, उन्हें लेकर गणधर साध्वियों की वसति में जाए और वे वस्त्र स्वयं प्रवर्तिनी को सौंप दे। ३६८०.बीएहिं उ संसत्तो, बितियस्सातिम्मि इह उ इत्थीहिं।
बितिए उवस्सगा वा, पगता इहई पि सो चेव॥ दूसरे उद्देशक में बीजों से संसक्त उपाश्रय की बात कही थी। तीसरे उद्देशक में स्त्रियों से संसक्त उपाश्रय का कथन है। अथवा दूसरे उद्देशक के अनेक सूत्रों में उपाश्रय का कथन है जिनमें साधुओं को रहना नहीं कल्पता। प्रस्तुत उद्देशक के आदिसूत्र में उसी उपाश्रय का कथन है। ३६८१.तत्थ अकारण गमणं, पडुच्च सुत्तं इमं समुदियं तु।
__ कज्जेण वा गते तू, तुवट्टमादीणि वारेति॥
प्रस्तुत सूत्र साध्वियों के उपाश्रय में बिना कारण जाने के विषय में है। बिना कारण वहां जाने का प्रतिषेध है। यदि कार्यवश जाए तो वहां त्वगवर्तन आदि न करे। ३६८२.आपुच्छमणापुच्छा, व अकज्जे चउगुरुं तु वच्चंते।
आपुच्छिय पडिसिद्धे, सुद्धा लग्गा उवेहंता॥ आचार्य को पूछ कर या बिना पूछे बिना कोई कार्य आर्या
के उपाश्रय में जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। यदि आचार्य पूछने पर प्रतिषेध करते हैं तो वे शुद्ध हैं-प्रायश्चित्त के भागी नहीं हैं। यदि वे उपेक्षा करते हैं तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। ३६८३.चउरो गुरुगा लहुगा, मासो गुरुगो य होति लहुगो य।
आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य गीतऽगीतत्थे। आचार्य यदि बिना कारण आर्या के उपाश्रय में जाते हैं तो चतुर्गुरु, अभिषेक को चतुर्लघु, गीतार्थ भिक्षु को गुरुमास और अगीतार्थ मुनि को लघुमास-ये प्रायश्चित्त विहित हैं। ३६८४.गमणे दूरे संकिय,
णिस्संकऽभिलाव कक्ख सतिकरणं। ओभासण पडिसुणणे,
संपत्ताऽऽरोवणा भणिता॥ १. संयति के उपाश्रय में निष्कारण गमन करना। २. वहां दूर स्थित साध्वियों को पहचानना। ३. कौन-कौन हैं ऐसी शंका करना। ४. अमुक-अमुक हैं ऐसे निःशंकित होना। ५. उनके साथ बातचीत करना। ६. कक्षांतर आदि देखना। ७. अपनी भार्या की स्मृति करना। ८. प्रतिसेवना की बात करना। ९. साध्वी द्वारा स्वीकृति प्राप्त कर लेना। १०.समागम करना।
इन दसों स्थानों में वक्ष्यमाण आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। ३६८५.भावम्मि उ संबंधो, सतिकरणं एरिसा वा सा आसि।
अहवा णं इणमटुं, पणएमि सती भवति एसा।। आर्या के साथ भावतः संबंध स्थापित हो जाने पर स्मृति होती है कि वह मेरी आर्या भी ऐसी ही थी। अथवा इस आर्या को मैं प्रतिसेवना के लिए प्रार्थना करूं यह स्मृतिकरण है। ३६८६.चउरो य अणुग्धाया,लहगो लहगा य होति गुरुगा य।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च। आर्या के प्रतिश्रय में गमन करने पर चार अनुद्घात
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