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३. वन्दन - सद्गुरुओं को नमस्कार, उनका गुणगान, ४. प्रतिक्रमण - दोषों की आलोचना, ५. कायोत्सर्ग - शरीर के प्रति ममत्व का त्याग, ६. प्रत्याख्यान - आहार आदि का त्याग।
अनुयोगद्वार में इनके नाम इस प्रकार दिए गये हैं - १. सावध योगविरति (सामायिक), २. उत्कीर्तन (चतुर्विंशतिस्तव), ३. गुणवत्प्रतिपत्ति (गुरु -उपासना अथवा वन्दना), ४. स्खलितनिन्दना (प्रतिक्रमण - पिछले पापों की आलोचना), ५. व्रणचिकित्सा (कायोत्सर्ग-ध्यान शरीर से ममत्व - त्याग) और ६. गुणधारण (प्रत्याख्यान - आगे के लिए त्याग, नियमग्रहण आदि)।
ज्ञानसार में आचार्य ने आवश्यकक्रिया का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा है - आवश्यकक्रिया पहले से प्राप्त भावविशुद्धि से आत्मा को गिरने नहीं देती। गुणों की वृद्धि के लिए और प्राप्त गुणों को स्खलित न होने के लिए आवश्यक क्रिया का आचरण बहुत उपयोगी है। आवश्यकक्रिया के आचरण से जीवन का उत्तरोत्तर विकास होता है। उसके जीवन में सद्गुणों का सागर ठाठे मारने लगता है।
आवश्यक में जो साधना का क्रम रखा गया है, वह कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। साधक के लिए सर्वप्रथम समता को प्राप्त करना आवश्यक है। बिना समता को अ सरस सुमन खिलते नहीं और अवगुणों के कांटे झड़ते नहीं। जब अन्तर्हदय में विषमभाव की ज्वालाएं धधक रही हों तब वीतरागी महापुरुषों के गुणों का उत्कीर्तन किस प्रकार किया जा सकता है ? समत्व को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति ही महापुरुषों के गुणों का संकीर्तन करता है और उनके उदात्त गुणों को जीवन में उतारता है। इसीलिए सामायिक आवश्यक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है। जब गुणों को व्यक्ति हृदय में धारण करता है, तभी उसका सिर महापुरुषों के चरणों में झुकता है। भक्तिभावना से विभोर होकर वह उन्हें वन्दन करता है, इसीलिए तृतीय आवश्यक वन्दन है। वन्दन करने वाले साधक का हृदय सरल होता है, खुली पुस्तक की तरह उसके जीवन - पृष्ठों को प्रत्येक व्यक्ति पढ़ सकता है। सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना करता है, अत: वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक का निरूपण है। भूलों को स्मरण कर उन भूलों से मुक्ति पाने के लिए तन एवं मन में स्थैर्य आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन और मन की एकाग्रता की जाती है और स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन स्थिर होता है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। मन डॉवाडोल स्थिति में हो, तब प्रत्याख्यान सम्भव नहीं है। इसीलिए प्रत्याख्यान आवश्यक का स्थान छठा रखा गया है। इस प्रकार यह षडावश्यक आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है।
अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के दो विभाग प्राप्त हैं - द्रव्य-आवश्यक और भाव-आवश्यक। द्रव्य आवश्यक में बिना चिन्तन, अन्यमनस्क भाव से पाठों का केवल उच्चारण किया जाता है। जो पाठ बोला जा रहा है उस पाठ में मन न लगकर इधर - उधर भटकता रहता है। द्रव्य-आवश्यक में केवल बाह्य क्रिया चलती है, उपयोग के अभाव से उस क्रिया से आन्तरिक तेज प्रकट नहीं होता। वह प्राणरहित साधना है। भाव-आवश्यक में साधक उपयोग के साथ क्रिया करता है। उस क्रिया के साथ उसका मन, उसका वचन, उसका तन पूर्ण रूप से एकाग्र होता
१. जं णं इमे समणो वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्यज्झवसाणे, तदट्ठोवउत्ते, तदप्पिययकरणे, तब्भावणाभविए, अन्नत्थ कत्थई मणं अकरेमाणे उभओकालं अवस्सयं करेंति से तं लोगुजरियं भावावस्सयं।
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