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१. दैवसिक
२. रात्रिक
३. पाक्षिक
४. चातुर्मासिक
५. सांवत्सरिक
चतुर्विंशतिस्तव
२
१२
१६.
२०
विजयोदया
श्लोक
२५
१२%,
७५
१००
१२५
५००
५००
प्रवचनसारोद्धार और विजयोदयावृत्ति में जो उच्छ्वास संख्या कायोत्सर्ग की दी गई है, उसमें एकरूपता नहीं है। यह ऊपर की पंक्तियों में जो चार्ट दिया गया है, उससे सहज जाना जा सकता है।
१. अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे । सान्ध्ये प्राभातिके वार्धमन्यस्तत् सप्तविंशतिः ॥ सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे । सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ॥ २. अष्टविंशति संख्यानाः कायोत्सर्गा मता जिनैः। अहोरात्रगताः सर्व षडावश्यककारिणाम् ॥ स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैः वन्दनायां षडीरिताः । अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहृतौ ॥ ३. मूलाराधना २, ११६ विजयोदया वृत्ति
४. उत्तराध्ययन २६, ३९-५१
दिगम्बर परम्परा के आचार्य अमितगति" ने यह विधान किया है दैवसिक कायोत्सर्ग में १०८ और रात्रि के कायोत्सर्ग में ५४ उच्चश्वासों का ध्यान करना चाहिये और अन्य कायोत्सर्ग में २७ उच्छ्वासों का ध्यान करना चाहिये। २७ उच्छ्वासों में नमस्कार की नौ आवृत्तियां हो जाती हैं, क्योंकि ३ उच्छ्वासों में एक नमस्कार महामंत्र पर ध्यान दिया जाता है। 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं' एक उच्छ्वास में 'नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं' दूसरे उच्छ्वास में तथा 'नमो लोए
"
सव्वसाहूणं' तीसरे उच्छ्वास में में - इस प्रकार ३ उच्छ्वासों में एक नमस्कार महामंत्र का ध्यान पूर्ण होता है। आचार्य अमितगति का अभिमत है कि भ्रमण को दिन और रात में कुल २८ बार कायोत्सर्ग करना चाहिये।' स्वाध्यायकाल में १२ बार, वन्दनकाल में ६ बार, प्रतिक्रमणकाल में ८ बार, योगभक्तिकाल में २ बार इस प्रकार कुल २८ बार कायोत्सर्ग करना चाहिये।
आचार्य अपराजित का मन्तव्य है कि पंच महाव्रत सम्बन्धी अतिक्रमण होने पर १०८ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करना चाहिये। कायोत्सर्ग करते समय मन की चंचलता से या उच्छवासों की संख्या की परिगणना में संदेह समुत्पन्न हो जाये तो आठ उच्छ्वास का और अधिक कायोत्सर्ग करना चाहिये ।
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चरण
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[ ४७ ]
१००
५०
३००
४००
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श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट है कि अतीतकाल में श्रमण साधकों के लिये कायोत्सर्ग का विधान विशेष रूप से रहा है। उत्तराध्ययन' के भ्रमण समाचारी अध्ययन में और
उच्छ्वास
१००
५०
३००
४००
अमितगति श्रावकाचार ८, ६८-६९
अमितगति श्रावकाचार ८, ६६-६७