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[ आवश्यकसूत्र
प्रत्याख्यान करना सुप्रत्याख्यान है। इसके विपरीत प्रत्याख्यान अर्थात् स्वरूप जाने समझे बिना किया जाने वाला प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है।
असंयम, प्राणातिपात आदि अब्रह्मचर्य - मैथुनवृत्ति, अकल्प-अकृत्य, अज्ञान-मिथ्याज्ञान, अक्रियाअसत्क्रिया, मिथ्यात्व आदि आत्मविरोधी प्रतिकूल आचरण को त्याग कर संयम, ब्रह्मचर्य, कृत्य, सम्यग्ज्ञान आदि को स्वीकार करते हुए यह आवश्यक है कि पहले असंयम आदि का स्वरूप ज्ञात कर लिया जाये। जब तक यह पता नहीं चलेगा कि असंयम आदि क्या हैं, उनका स्वरूप क्या है, उनके होने से क्या हानि है तथा उन्हें त्यागने से साधक को क्या लाभ है, तब तक उन्हें त्यागा कैसे जायेगा? अतः प्रत्याख्यान-परिज्ञा से पहले ज्ञ-परिज्ञा अत्यंत आवश्यक है। अज्ञानी साधक की कठोर से कठोर क्रियायें एवं उग्र से उग्र बाह्यसाधना भी संसार-परिभ्रमण का ही कारण होती है।
प्रस्तुत पाठ में 'असंजमं परियाणामि, संजम उवसंपज्जामि' इत्यादि पाठ में जो 'परियाणामि' क्रिया है उसका अर्थ न केवल जानना है और न केवल छोड़ना, अपितु सम्मिलित अर्थ है 'जान कर छोड़ना'।
आचार्य जिनदास भी कहते हैं - "परियाणामित्ति ज्ञ-परिणया जाणामि, पच्चक्खाण-परिणया पच्चक्खामि।"
अकप्प-कप्प - कल्प का अर्थ है आचार । अतः चरण-करण रूप आचार-व्यवहार को आगम की भाषा में कल्प कहा जाता है। इसके विपरीत अकल्प होता है । साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं अकल्प-अकृत्य को जानता तथा त्यागता हूँ और कल्प-कृत्य को स्वीकार करता हूँ।
आचार्य जिनदास ने सामान्यतः कहे हुए एकविध असंयम के ही विशेष विवक्षा भेद से दो भेद किये हैं - 'मूलगुण-असंयम और उत्तरगुण-असंयम।' और फिर अब्रह्म शब्द से मूलगुण-असंयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तरगुण-असंयम का ग्रहण किया है। आचार्यश्री के कथनानुसार प्रतिज्ञा का रूप इस प्रकार होता है - "मैं मूलगुण-असंयम का विवेकपूर्वक परित्याग करता हूँ और मूलगुण-संयम को स्वीकार करता हूँ।"
अन्नाण-नाण – अज्ञान का अर्थ यहां ज्ञानावरणकर्म के उदय से होने वाला ज्ञान का अभाव नहीं अपितु मिथ्या ज्ञान समझना चाहिये। ज्ञान का अभाव अर्थ लिया जाये तो उसके त्यागने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जो है ही नहीं, उसका त्याग कैसा?
ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से ज्ञान प्राप्त होता है और मिथ्यात्व का उदय उसे मिथ्या बना देता है।
१. "अकल्पोऽकृत्यमाख्यायते कल्पस्तु कृत्यमिति।"
- आचार्य हरिभद्र २. "सो य असंजमो विसेसतो दुविहो-मूलगुण-असंजमो उत्तरगुण-असंजमो य। अतो सामण्णेण भणिऊण संवेगाद्यर्थ विसेसतो चेव भणति अबंभ अबंभग्गहणेण मूलगुण भण्णंति त्ति एवं .... अकप्पगहणेण उत्तरगुणति।"
- आवश्यकचूर्णि