Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 175
________________ १०४] [ आवश्यकसूत्र है। अब आवश्यकता है अटल आस्था के साथ कर्म और आत्मा अर्थात् जड़-चेतन के स्वरूप को समझकर आत्म-उत्थान के हेतुओं को जीवन में उतारने की। आत्म कल्याण के कारणों में प्रथम हेतु क्षमा-धर्म ही है। शास्त्र का वचन है - दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा - १. खंती, २. मुत्ती, ३. अजवे, ४. मद्दवे, ५. लाघवे, ६. सच्चे, ७. संजमे , ८. तवे, ९. चियाए, १०. बंभचेरवासे। - समवायांगसूत्र क्षमाश्रमण भगवान् महावीर ने दस प्रकार के यतिधर्मों में सर्व प्रथम क्षमा को ही बताया है। साधक जीवन में क्षमा धर्म की अनिवार्य आवश्यकता है । क्षमा के अभाव में व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सुख-शान्तिमय जीवन नहीं जी सकता है। वास्तव में 'क्षमा' मनुष्य का नैसर्गिक गुण है, इसे किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को छोड़ना नहीं चाहिये। क्षमा तथा प्रेम के प्रभाव से क्रूर हृदय भी बदले जा सकते हैं - "क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ?" - सुभाषित संचय अर्थात् क्षमा संसार में वशीकरण मंत्र है, क्षमा से क्या सिद्ध नहीं होता ? सबसे बड़ा तप क्षमा ही है। 'क्षान्तितुल्यं तपो नास्ति' - क्षमा के बराबर दूसरा तप नहीं है। अपनी आत्मा के अभ्युदय का दृढ़ संकल्प रखने वाले साधक निश्चय ही मन को संयत बनाने में अर्थात् क्षमा करने में समर्थ होते हैं । भोगों के प्रलोभन उन्हें आकर्षित नहीं कर सकते, लालसाएँ उन्हें भावित नहीं कर पाती तथा भीषण विपत्तियां और संकट उन्हें व्याकुल नहीं कर सकते । संयत व्यक्ति के हृदय पर लोभ के आक्रमण-प्रहार बेअसर हो जाते हैं तथा क्रोध की अग्नि उसके क्षमा सागर में आकर समाप्त हो जाती है। ऐसा पुरुष शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों का समन्वय करके जिन प्ररूपित नियमों के अनुसार साधना-रत रहता है। साधना-निरत व्यक्ति से कभी छद्मस्थ अवस्था के कारण जानेअनजाने यदि भूल हो जाए तो वह तत्काल अपने अपराधों की सरल हृदय से क्षमायाचना कर लेता है। प्रतिक्रमण की परिसमाप्ति पर प्रस्तुत क्षमा याचना सूत्र का उच्चारण करते समय मनोयोग, वचनयोग और काययोग-इन तीनों का समन्वय होना आवश्यक है । जीवन को निष्कलुष और निर्मल बनाने के लिये विगत भूलों पर पश्चात्ताप करना आवश्यक है किन्तु पश्चात्ताप यदि कोरा पश्चात्ताप ही रहे तो उससे कुछ भी लाभ नहीं होता। पश्चात्ताप होने पर भूल को सुधारने का मन में ध्रुव संकल्प भी होना चाहिये और जो भूलें पहले हो चुकी हैं, उन्हें फिर न दोहराने का प्रयत्न करना चाहिये, तभी साधक का सच्चा क्षमापनासूत्र जीवनउत्थान में उपयोगी बन सकता है । इस क्षमायाचना से जीवन के अपराधी संस्कार समाप्त हो जाते हैं और जीवन में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो जाता है तथा हृदय में नवीन प्रकाश की किरणें स्फुटित हो जाती हैं । जैसे करोड़ों वर्षों से अन्धकाराच्छादित तामस गुफा में चक्रवर्ती का मणिरत्न (छह खण्ड की विजय करते समय)

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