Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 179
________________ १०८] [ आवश्यकसूत्र स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा॥ अर्थात् अतीत काल में आत्मा ने स्वयं शुभ या अशुभ कर्म किये हैं, उन्हीं का शुभ या अशुभ फल वह प्राप्त करता है। यदि दूसरे के द्वारा दिया फल मिलता हो तो स्पष्ट है कि अपने किये कर्म निष्फल हों जायें ! आगे वहीं कहते हैं - निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन। विचारयन्नेवमनन्यमानसो परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम्॥ अर्थात् अपने उपार्जित कर्मों के सिवाय कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। ऐसा विचार करके अनन्यमनस्क बनो-अपनी ओर दृष्टि लगाओ। दूसरा कोई कुछ देता है, इस बुद्धि का परित्याग कर दो। जैनधर्म का यह सच्चा आत्मवाद है और यह आत्मा के अनन्त, असीम पुरुषार्थ को जगाने वाला है। यह किसी के समक्ष दैन्य दिखलाकर भिखारी न बनने का महामूल्य मंत्र है । यही पारमार्थिक दृष्टि है , तो फिर भगवान् को अभय आदि का दाता क्यों कहा गया है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य के कारण दो प्रकार के होते हैं – उपादान और निमित्त । कार्य की निष्पत्ति दोनों प्रकार के कारणों से होती है, एक से नहीं। घट बनाने के लिये जैसे उपादान मृत्तिका आवश्यक है, उसी प्रकार कुम्भकार, चाक आदि निमित्त कारण भी अनिवार्य रूप से अपेक्षित हैं । इस नियम के अनुसार अपने उत्कर्ष का - मोक्ष का उपादान कारण स्वयं आत्मा है और निमित्त कारण अरिहन्त भगवान् एवं तत्प्ररूपित धर्म संघ आदि हैं । व्यवहारनय से निमित्त कारण को भी कर्ता कहा जाता है । अत: प्रस्तुत पाठ में भी व्यवहारनय की दृष्टि की प्रधानता से अरिहन्त भगवान् को 'दाता' कहा है, क्योंकि अरिहन्त भगवान् उस पथ के उपदेष्टा हैं, जिसका अनुसरण करने से जीव सदा काल के लिय अभय-भययुक्त बनता है। 'अभय' शब्द का अर्थ 'संयम' भी है। भगवान् संयमोपदेष्टा होने से भी अभयदाता हैं। इसी प्रकार चक्षुदाता आदि विशेषणों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। विशिष्ट शब्दों का अर्थ - भगवंताणं - भगवंतों को। भग' शब्द के छह अर्थ हैं - १. ऐश्वर्य - वैभव, २. रूप, ३. यश:कीर्ति, ४. श्री-शोभा, ५. धर्म और ६. प्रयत्न-पुरुषार्थ ।' ये छह विशेषताएँ जिनमें समग्र सर्वोत्कृष्ट रूप में विद्यमान हों, वे भगवान् कहलाते हैं। आइगरा आदिकर - आदि करने वाले। धर्म यद्यपि वस्तु का स्वभाव होने के कारण अनादि १. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना। - दशवैकालिकचूर्णि-जिनदास

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