Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 178
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [१०७ करने वाले हैं । धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, (परोपदेश बिना) स्वयं ही प्रबुद्ध हुए हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, पुरुषों में सिंह (के समान पराक्रमी) हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक-श्वेत कमल के समान है, पुरुषों में श्रेष्ठ गन्ध-हस्ती हैं । लोक में उत्तम हैं लोक के नाथ हैं , लोक के हितकर्ता हैं, लोक में दीपक हैं, लोक में उद्योत करने वाले हैं। अभय देने वाले हैं , ज्ञान रूपी नेत्र देने वाले हैं, धर्ममार्ग को देने वाले हैं, शरण देने वाले हैं, संयम रूप जीवन के दाता हैं, धर्म के उपदेशक हैं , धर्म के नेता हैं, धर्म के सारथी-संचालक हैं । चार गति का अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं , अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले हैं , ज्ञानावरण आदि घातिकर्मों से अथवा प्रमाद से रहित हैं। स्वयं राग-द्वेष को जीतने वाले हैं, दूसरों को जीताने वाले हैं , स्वयं संसार सागर से तर गये हैं, दूसरों को तारने वाले हैं, स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक्त हैं, दूसरों को मुक्त कराने वाले हैं। सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, तथा शिव-कल्याणरूप, अचल-स्थिर, अरुज-रोग रहित, अनन्त-अंत रहित, अक्षय-क्षय रहित, अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित, अपुनरावृत्ति-पुनरागमन से रहित अर्थात् जन्म-मरण से रहित, सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय को जीतने वाले हैं, राग-द्वेष को जीतने वाले हैं - ऐसे जिन भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो। विवेचन - प्रस्तुत पाठ में अरिहन्त और सिद्ध भगवान् को नमस्कार किया गया है। अनादि काल से अब तक अनन्त अरिहन्त और सिद्ध हो चुके हैं , इस कारण तथा उनकी महत्ता - उत्कृष्टता प्रकट करने के लिये मूल पाठ में बहुवचन का प्रयोग किया गया है । रागादि आन्तरिक रिपुओं को विनष्ट करने वाले अरिहन्त कहलाते हैं और आत्मा के साथ बंधे आठ कर्मों को समूल भस्म कर देने वाले लोकोत्तर महापुरुष सिद्ध कहे जाते हैं। उन जैसा पद प्राप्त करने एवं जिस प्रशस्त पद पर प्रयाण करके उन्होंने परमोत्तम पद प्राप्त किया है, उसी पथ पर चलकर उस पद को प्राप्त करने के लिये अपने अन्तःकरण में संकल्प एवं सामर्थ्य जागृत करने के लिये उन्हें नमस्कार किया जाता है। मूल पाठ में कतिपय विशेषण ऐसे भी हैं जिनका रहस्य हमें विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिये। भगवान् को 'अभयदयाणं' आदि कहा गया है, अर्थात् भगवान अभयदाता हैं , चक्षुदाता हैं, मार्ग के दाता हैं, बोधि के दाता हैं , इत्यादि। किन्तु जैनधर्म के अनुसार, भगवान् के स्वयं के कथनानुसार कोई किसी को शुभ या अशुभ फल प्रदान नहीं कर सकता। आगम में कहा है - 'अत्ता कत्ता विकत्ता य।' अर्थात् पुरुष स्वयं अपने कर्मों का कर्ता-हर्ता और सुख-दुःख का जनक है । आचार्य अमितगति ने इसी तथ्य को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है -

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