Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 182
________________ १. जीवन को सुघड़ बनाने वाली और आलोक की ओर ले जाने वाली मर्यादायें नियम कहलाती हैं अथवा जो मर्यादाएं सार्वभौम हैं, प्राणिमात्र के लिये हितावह हैं और जिन से स्व-पर का हितसाधन होता है, उन्हें नियम या व्रत कहा जा सकता है। २. अपने जीवन के अनुभव में आने वाले दोषों को त्यागने का दृढ़ संकल्प उत्पन्न होता है, तभी व्रत की उत्पत्ति होती है । व्रतों की उपयोगिता ३. सरिता के सतत गतिशील प्रवाह को नियंत्रित रखने के लिये दो किनारे आवश्यक होते हैं, इसी प्रकार जीवन को नियंत्रित, मर्यादित और गतिशील बनाये रखने के लिये व्रतों की आवश्यकता है। जैसे किनारों के अभाव प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है, इसी प्रकार व्रत विहीन मनुष्य की जीवन-शक्ति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतएव जीवन शक्ति को केन्द्रित और योग्य दिशा में उसका उपयोग करने के लिये व्रतों की अत्यन्त आवश्यकता है। ४. आकाश में ऊँचा उड़ने वाला पतंग सोचता है मुझे डोर के बन्धन की क्या आवश्यकता है । यह डोर न हो तो मैं स्वछन्द भाव से गगन-विहार कर सकता हूँ। किन्तु हम जानते हैं कि डोर टूट जाने पर पतंग की क्या दशा होती है। डोर टूटते ही पतंग के उन्मुक्त व्योमविहार का स्वप्न भंग हो जाता है और उसे धूल में मिलना पड़ता है। इसी प्रकार जीवनरूपी पतंग को उन्नत रखने के लिये व्रतों की डोर के साथ बंधे रहने की आवश्यकता है। चार प्रकार से व्रतों में दोष लगता १. अतिक्रम स्वीकृत व्रत को भंग करने की इच्छा होना। २. व्यतिक्रम स्वीकृत व्रत को भंग करने हेतु तत्पर होना । ३. अतिचार - स्वीकृत व्रत को एकदेश भंग करना । ४. अनाचार स्वीकृत व्रत को सर्वथा भंग करना । इन दोषों से व्रतों की रक्षा करना आवश्यक है और प्रमादवश कदाचित् दोष लग जाये तो उसका प्रतिक्रमण करके शुद्धि कर लेना चाहिये। इसी दृष्टि से यहां अतिचारों का पाठ दिया गया है। स्मरण रहे कि यह प्रतिक्रमण - पाठ श्रावक-श्राविकाओं के व्रतों से सम्बन्धित है । - - - - 00

Loading...

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204