Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 193
________________ १२२] [आवश्यकसूत्र झाणं।' कायोत्सर्ग दो प्रकार का है - द्रव्यकायोत्सर्ग और भावकायोत्सर्ग । शारीरिक चेष्टाओं – व्यापारों का त्याग करके, जिन-मुद्रा से एक स्थान पर निश्चल खड़े रहना द्रव्यकायोत्सर्ग है । आर्त और रौद्र ध्यानों का त्याग कर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में निरत होना, मन में शुभ भावनाओं का प्रवाह बहाना, आत्मा को अपने शुद्ध मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित करना - ___ 'सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति, दव्वतो कायचेट्ठानिरोहो, भावतो काउस्सगो - आचार्य जिनदास उत्तराध्ययन में कायोत्सर्ग को समस्त दुःखों से सर्वथा मुक्त करने वाला कहा गया है। कायोत्सर्ग हो अथवा अन्य कोई क्रिया, भावपूर्वक करने पर ही वास्तविक फलप्रद होती है । ऊपर कायोत्सर्ग का जो महत्त्व प्रदर्शित किया गया है, वह वस्तुतः भावपूर्वक किये जाने वाले कायोत्सर्ग का ही महत्त्व है। भावविहीन मात्र द्रव्यकायोत्सर्ग आत्मविशुद्धि का कारण नहीं होता। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये एक आचार्य ने कायोत्सर्ग के चार रूपों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं - १. उत्थित-उत्थित - कायोत्सर्ग करने वाला साधक जब द्रव्य के साथ भाव से भी खड़ा होता है अर्थात् दुर्ध्यान से हट कर जब धर्म-शुक्लध्यान में रमण करता है, तब वह उत्थित-उत्थित कायोत्सर्ग करता है। यह रूप सर्वथा उपादेय है। २. उत्थित-निविष्ट - द्रव्य से खड़ा होना, भाव से खड़ा न होना अर्थात् दुर्ध्यान करना। यह रूप हेय है। ३. उपविष्ट-उत्थित - कोई अशक्त या अतिवृद्ध साधक खड़ा नहीं हो सकता, किन्तु भाव से खड़ा होता है – शुभध्यान में लीन होता है, तब वह कायोत्सर्ग उपविष्ट-उत्थित कहलाता है । यह रूप भी उपादेय ४. उपविष्ट-निविष्ट - कोई प्रमादशील साधक जब शरीर से भी खड़ा नहीं होता और भाव से भी खड़ा नहीं होता तब कायोत्सर्ग का यह रूप होता है। यह वास्तव में कायोत्सर्ग नहीं, किन्तु कायोत्सर्ग का दम्भ मात्र है। पंचम आवश्यकरूप कायोत्सर्ग करते समय यद्यपि अन्यान्य पाठों का भी उच्चारण किया जाता है परन्तु लोगस्स' का ध्यान ही इसका प्रमुख अंग है । अन्यत्र उल्लिखित विधि से यह सब स्पष्ट हो जायेगा। 00

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