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षष्ठाध्ययन : प्रत्याख्यान ]
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आयंबिल में आठ आगार माने गये हैं । आठ में से पांच आगार तो पूर्व प्रत्याख्यानों के समान ही हैं, नवीन तीन आगार इस प्रकार हैं –
१. लेपालेप - आचाम्ल में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत आदि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हों और दाता गृहस्थ यदि उसे पोंछकर उनके द्वारा आचाम्ल-योग्य भोजन बहराये तो ग्रहण कर लेने पर व्रत भंग नहीं होता है।
___'लेपालेप' शब्द'लेप' और 'अलेप' मिलकर बना है। लेप का अर्थ घृतादि से पहले लिप्त होना है। अलेप का अर्थ है बाद में उसको पोंछकर अलिप्त कर देना। पोंछ देने पर भी विकति का कछ अंश लिप्त रहता ही है । अतः आचाम्ल में लेपालेप का आगार रखा जाता है। 'लेपश्च अलेपश्च लेपालेपं तस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न-भंङ्ग इत्यर्थः।'
___ - प्रवचनसारोद्धारवृत्ति २. उत्क्षिप्त-विवेक - शुष्क ओदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा शक्कर आदि अद्रव-सूखी विकृति पहले से रखी हो, आचाम्लव्रतधारी मुनि को कोई वह विकृति उठाकर रोटी आदि देना चाहे तो ग्रहण की जा सकती है । उत्क्षिप्त का अर्थ उठाना है और विवेक का अर्थ है – हटाना - उठाने के बाद उसका न लगा रहना।
३. गृहस्थसंसृष्ट - घृत अथवा तेल आदि विकृति से छोंके हुये कुल्माष आदि लेना गृहस्थसंसृष्ट आगार है। उक्त आगार में यह ध्यान रखने की बात है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत भंग नहीं होता परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो तो वह ग्रहण कर लेने से व्रत भंग का निमित्त बनती है।
कुछ आचार्यों की मान्यता है कि लेपालेप, उत्क्षिप्त-विवेक, गृहस्थसंसृष्ट और पारिष्ठापनिकागार - ये चार आगार साधु के लिये ही हैं , गृहस्थ के लिये नहीं। ७. अभक्तार्थ-उपवाससूत्र
उग्गए सूरे, अभत्तठें पच्चक्खामि, चउव्विहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइम, साइमं।
अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।
भावार्थ – सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ-उपवास ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों ही प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ।
___ अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार। उक्त पांच आगारों के सिवाय सब प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ।