Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 201
________________ १३०] [ आवश्यकसूत्र (६) महत्तराकार, (७) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार । उक्त सात आगारों के सिवा पूर्णतया आहार का त्याग करता विवेचन - यह एकस्थान का सूत्र है । एकस्थानान्तर्गत 'स्थान' शब्द 'स्थिति' का वाचक है । अतः एक स्थान का फलितार्थ है – 'दाहिने हाथ एवं मुख के अतिरिक्त शेष सब अंगों को हिलाये बिना, दिन में एक ही आसन और एक ही बार भोजन करना। अर्थात् भोजन प्रारम्भ करते समय जो स्थिति, जो अंगविन्यास हो, जो आसन हो, उसी स्थिति, अंगविन्यास एवं आसन से भोजन की समाप्ति तक बैठे रहना चाहिये।' आचार्य जिनदास ने आवश्यकचूर्णि में एक स्थान की यही परिभाषा की है – 'एकट्ठाणे जं जथा अंगुवंगं ठवियं तहेव समुद्दिसितव्वं, आगारे से आउंटणपसारणं नत्थि, सेसा सत्त तहेव।' एकस्थान की अन्य विधि सब 'एकाशन' के समान है। केवल हाथ, पैर आदि के आकुञ्चनप्रसारण का आगार नहीं रहता। इसलिये प्रस्तुत सूत्र में 'आउंटणपसारणेणं' का उच्चारण नहीं किया जाता है। ६. आचाम्ल-आयंबिलप्रत्याख्यानसूत्र ___ आयंबिलं पच्चक्खामि, अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उक्खित्तविवेगेणं, गिहिसंसट्टेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। भावार्थ – आयंबिल अर्थात् आचाम्ल तप ग्रहण करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, उत्क्षिप्तविवेक, गृहस्थसंसृष्ट, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार - उक्त आठ आकार अर्थात् अपवादों के अतिरिक्त अनाचाम्ल आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन - आचाम्ल व्रत में दिन में एक बार रूक्ष, नीरस एवं विकृति-रहित आहार ही ग्रहण किया जाता है , दूध, दही, घी, तेल, गुड़, शक्कर, पक्वान्न आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन, आचाम्लव्रत में ग्रहण नहीं किया जा सकता। प्राचीन आचारग्रन्थों में चावल, उड़द अथवा सत्तू आदि में से किसी एक के द्वारा ही आचाम्ल करने का विधान है। एकाशन और एकस्थान की अपेक्षा आयंबिल का महत्त्व अधिक है। एकाशन और एकस्थान में तो एक बार के भोजन में यथेच्छ सरस आहार भी ग्रहण किया जा सकता है परन्तु आयंबिल के एक बार के भोजन में तो केवल उबले हुए उड़द के बाकले आदि लवण रहित, नीरस आहार ही ग्रहण किया जाता है। भावार्थ यह है कि आचाम्ल तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् आदर्श है। जिह्वेन्द्रिय का संयम, एक बहुत बड़ा संयम है। आयंबिल ही साधक की इच्छानुसार चतुर्विधाहार एवं त्रिविधाहार किया जाता है। चतुर्विधाहार करना हो तो, 'चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं' बोलना चाहिये और त्रिविध में पाणं नहीं बोलना चाहिये।

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