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षष्ठाध्ययन: प्रत्याख्यान ]
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६. असिक्थ - आटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र आदि का वह धोवन, जो छना हुआ हो, फलतः जिसमें आटे आदि के कण न हों।
पंडित सुखलालजी का कहना है – प्रारम्भ से ही चउव्विहाहार उपवास करना हो तो 'पारिट्ठावणियागारेणं' बोलना चाहिये। यदि प्रारम्भ में त्रिविधाहार किया हो, परन्तु पानी न लेने के कारण सायंकाल के समय तिविहाहार से चउव्विहाहार उपवास करना हो तो 'पारिट्ठावणियागारेणं' नहीं बोलन चाहिये। ८. दिवसचरिमसूत्र
दिवसचरिमं ( भवचरिमं वा) पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं,खाइमं, साइमं। अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।
भावार्थ - दिवसचरम का (अथवा भवचरम का) व्रत ग्रहण करता हूँ, फलत: अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार, उक्त चार आगारों के सिवाय आहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन – यह चरमप्रत्याख्यानसूत्र है। 'चरम' का अर्थ है 'अन्तिम।' वह दो प्रकार का है - दिवस का अन्तिम भाग और भव अर्थात् आयु का अन्तिम भाग। सूर्य अस्त होने से पहले ही दूसरे दिन सूर्योदय तक के लिये चारों अथवा तीनों आहारों का त्याग करना, दिवसचरमप्रत्याख्यान है।
भवचरमप्रत्याख्यान का अर्थ है – जब साधक को यह निश्चय हो जाये कि आयु थोड़ी ही शेष है तो यावजीवन के लिये चारों या तीनों प्रकार के आहार का त्याग कर दे और संथारा ग्रहण करके संयम की आराधना करे। भवचरम का प्रत्याख्यान जीवन भर की संयम साधना संबंधी सफलता का उज्ज्वल प्रतीक है।
'भवचरम' का प्रत्याख्यान करना हो तो 'दिवसचरिमं' के स्थान पर 'भवचरिमं' बोलना चाहिये। शेष पाठ दिवसचरिम के समान ही है।
मुनि के लिये जीवनपर्यन्त त्रिविधं त्रिविधेन रात्रिभोजन का त्याग होता है । अत: उनको दिवसचरिम के द्वारा शेष दिन के भोजन का त्याग होता है और रात्रिभोजन त्याग का अनुवादकत्वेन स्मरण हो जाता है। रात्रिभोजन त्यागी गृहस्थों के लिये भी यही बात है। जिनको रात्रिभोजन का त्याग नहीं है उनको दिवसचरिम के द्वारा शेष दिन और रात्रि के लिये भोजन का त्याग हो जाता है। ९. अभिग्रहसूत्र
अभिग्गहं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं । अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।