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षष्ठाध्ययन : प्रत्याख्यान ]
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२. आकुञ्चनप्रसारण - भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने पर हाथ, पैर आदि अंगों का सिकोड़ना या फैलाना।
३. गुर्वभ्युत्थान - गुरुजन एवं किसी अतिथि विशेष के आने पर उनका विनय-सत्कार करने के लिये उठना, खड़े होना।
प्रस्तुत आगार का आशय बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । गुरुजन एवं अतिथिजन के आने पर अवश्य ही उठ कर खड़ा हो जाना चाहिये। उस समय यह भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिये कि 'एकासन में उठ कर खड़े होने का विधान नही है । अतः उठने या खड़े होने से व्रत भंग के कारण मुझे दोष लगेगा।' गुरुजनों के लिये उठने में कोई दोष नहीं है, इससे व्रत भंग नहीं होता, प्रत्युत विनय तप की आराधना होती है। आचार्य सिद्धसेन लिखते
'गुरुणामभ्युत्थानार्हत्वादवश्यं भुञ्जानेनाऽप्युत्थानं कर्त्तव्यमिति, न तत्र प्रत्याख्यानभङ्गः।'
___ - प्रवचनसारोद्धारवृत्ति ४. पारिष्ठापनिकाकार – जैन मुनि के लिये विधान है कि यह अपनी आवश्यक क्षुधापूर्ति के लिये परिमित मात्रा में ही आहार लाये, अधिक नहीं। तथापि कभी भ्रांतिवश यदि किसी मुनि के पास आहार अधिक आ जाये और वह परठना – डालना पड़े तो आहार को गुरुदेव की आज्ञा से तपस्वी मुनि को ग्रहण कर लेना चाहिये।
आचार्य सिद्धसेन ने कहा है – आहार को परठ देने में बहुत दोषों की सम्भावना रहती है और उसे ग्रहण-भक्षण कर लेने में आगमिक न्याय के अनुसार गुण-लाभ है, अतएव गुरु की आज्ञा से पुनः उसका उपभोग कर लेने से व्रत-भंग नहीं होता। ५. एगट्ठाणपच्चक्खाण
एक्कासणं एगट्ठाणं पच्चक्खामि, तिविहं' पि आहारं – असणं, खाइमं, साइमं ।
अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।
भावार्थ – एकाशन रूप एकस्थान व्रत को ग्रहण करता हूँ। अशन, खादिम और स्वादिम तीनों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ।
(१) अनाभोग, (२) सहसाकार, (३) सागारिकाकार, (४) गुर्वभ्युत्थान, (५) पारिष्ठापनिकाकार, १. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति। २. चारों प्रकार के आहार का त्याग करना हो तो 'चउव्विहं पि' ऐसा पाठ बोलना चाहिये।