________________
१२०]
[ आवश्यकसूत्र
तब फ रसना करके शुद्ध होऊ एवं ग्यारहवां प्रतिपूर्णपौषधवत का पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं - अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय सेज्जासंथारए, अप्पमज्जिय-दुप्पमजिय सेज्जासंथारए, अप्पडिले हिय-दुप्पडिले हिय उच्चारपासवणभूमि, अप्पमजिय-दुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमि, पोसहस्स सम्म अणणुपालणया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
भावार्थ – मैं प्रतिपूर्ण पौषधव्रत के विषय में एक दिन एवं रात के लिये अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। अब्रह्मचर्य सेवन का, अमुक मणि-सुवर्ण आदि के आभूषण पहनने का, फूलमाला पहनने का चूर्ण और चन्दनादि के लेप करने का, तलवार आदि शस्त्र और हल, मूसल आदि औजारों के प्रयोग संबंधी जितने सावध व्यापार हैं , उन सबका त्याग करता हूँ । यावत् एक दिन-रात पौषधव्रत का पालन करता हुआ मैं उक्त पाप क्रियाओं को मन, वचन, काया से नहीं करूंगा और न अन्य से करवाऊंगा, ऐसी मेरी श्रद्धा-प्ररूपणा तो है किन्तु पौषध का समय आने पर जब उसका पालन करूंगा तब शुद्ध होऊंगा। पौषधव्रत के समय शय्या के लिये जो कुश, कम्बल आदि आसन हैं उनका मैंने प्रतिलेखन और प्रमार्जन न किया हो, मल-मूत्र त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन न किया हो अथवा अच्छी तरह से न किया हो तथा सम्यक् प्रकार आगमोक्त मर्यादा के अनुसार पौषध का पालन न किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा सब पाप निष्फल हो। १२. अतिथिसंविभागवत के अतिचार
बारहवां अतिथिसंविभागवत - समणे निग्गंथे फासुयएसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमवत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं पडिहारिय-पीढ-फलक-सेज्जा-संथारएणं ओसह-भेसज्जेणं पडिलाभेमाणे विहरामि, ऐसी मेरी सहहणा प्ररूपणा है, साधु-साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान दूं तब शुद्ध होऊं एवं बारहवें अतिथिसंविभागवत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोऊ – सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपिहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिआए। जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
भावार्थ - मैं अतिथिसंविभागव्रत का पालन करने के लिये निर्ग्रन्थ साधुओं को अचित्त, दोष रहित अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का , वस्त्र पात्र कम्बल पादपोंछन, चौकी, पट्टा, संस्तारक औषधि आदि का साधु-साध्वी का योग मिलने पर दान दूं तब शुद्ध होऊं, ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा है । यदि मैंने साधु के योग्य अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु पर रखा हो, अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढका हो, भोजन के समय से पहले या पीछे साधु को भिक्षा के लिये प्रार्थना की हो, दान देने योग्य वस्तु को दूसरे की बताकर साधु को दान नहीं दिया हो दूसरे को दान देते ईर्ष्या की हो, मत्सरभाव से दान दिया हो, तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा वह सब पाप निष्फल हो।
00